मंगलवार, 7 जुलाई 2009

मंथन के मोती, भाग - १४

'‘मंथन के मोती’’ में आपका स्वागत है। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

हमारे यहाँ सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। सत्संग का अर्थ है अच्छा संग। तुलसीदास जी ने तो इसे और भी अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने पहले तो यह कहा कि ‘‘बिनु सत्संग विवेक न होई’ यानी कि अच्छे लोगों के संग के बिना ज्ञान नहीं मिलता। फिर इसके भी आगे जाकर उन्होंने कहा ‘बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता’। जब तक ईश्वर की कृपा नहीं होती। तब तक संत नहीं मिलते और जब तक संत नहीं मिलते तब तक सत्संग नहीं होता। जब तक सत्संग नहीं होता तब तक विवेक जागृत नहीं होता और जब विवेक ही जागृत नहीं होगा, तब भला जीवन अच्छा कैसे हो सकता है। इसीलिए तो हमारे बड़े-बूढ़े बचपन से ही अपने बच्चों को बताते रहते हैं-जैसी संगत वैसी रंगत। वे बताते रहते हैं कि अच्छे लोगों के साथ रहने से बुरे लोग भी वैसे ही अच्छे बन जाते हैं जैसे कि चंदन के वृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी में भी चन्दन की सुगन्ध समा जाती है।
बात बहुत स्पष्ट है कि जब भी अच्छे लोग मिलेंगे, कुछ न कुछ अच्छी बातें ही करेंगे। जब वे कुछ न कुछ अच्छी बातें करेंगे, तो कुछ न कुछ अच्छा ही होगा। दुनिया में बहुत से अच्छे काम कुछ अच्छे लोगों के आपस में मिलने के कारण ही हो पाए हैं। तो लीजिए मैं प्रस्तुत करता हूँ इसी तरह का एक सच्चा उदाहरण, जिसने एक ऐसी फिल्म कम्पनी की स्थापना कर दी, जिसे हम विमल दा प्रोडक्शन के नाम से जानत हैं। इस कम्पनी ने देश को ‘सुजाता’ और ‘बंदिनी’ जैसी अनेक कालजयी फिल्में दीं। लीजिए सुनिए इस कम्पनी के बनने की यह कहानी-
‘विमल दा प्रोडक्शन’, जिसने ‘दो बीघा जमीन’ जैसी यथार्थवादी फिल्म बनाई थी, का जन्म अचानक बम्बई की डबलडेकर बस में हुआ था। हुआ यों कि एक बार बिमल दा अपने साथियों-ऋषिकेश मुखर्जी, असीन सेन आदि के साथ मुम्बई के इरोज थियेटर से जापानी फिल्मकार कुरोसावा की ‘रोसोमन’ देखकर लौट रहे थे। बिमल राय ने अपने साथियों से पूछा कि ‘‘हम ‘रोसोमन’ जैसी यादगार फिल्म क्यों नही बना सकते।’’ बस, इसी उद्देश्य से उन्होंने वहीं एक फिल्म कम्पनी बनाने का फैसला कर लिया।
क्या आपको नहीं लगता कि यदि ये तीनों मित्र उस समय नहीं मिले होते, तो हमारा देश कई महत्वपूर्ण सामाजिक फिल्मों को देखने से वंचित रह जाता। बिमल दा प्रोडक्शन ने जिन सामाजिक उद्देश्यों को लेकर फिल्में बनाईं, जो मधुर गीत और संगीत उन्होंने भारतीय वातावरण में घोले, वे अपने-आपमें उदाहरण हैं।
जब भी हम अच्छे लोगों से मिलते हैं, हमारे मस्तिष्क का वातावरण ठीक उसी तरह से अच्छा हो जाता है जैसे कि हम किसी बागीचे में पहुँचने के बाद महसूस करते हैं। हमारे मस्तिष्क का वातावरण भी हमेशा स्वच्छ, सुन्दर, प्रकाशवान और हवादार बना रहे, इसके लिए आवश्यक हैं कि हम अपने दिन भर का कुछ न कुछ समय अच्छे लोगों की संगत में बिताएँ। 
‘‘मंथन के मोती’’ के साथ बिताया गया समय भी एक ऐसा ही अच्छा समय है। क्या ऐसा नहीं है? हमें बताएँ, हमें लिखें, हमें अच्छा लगेगा। आज के लिए इतना ही। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

अच्चे संग से सफलता सुनिश्चित करें

मंथन के मोती, भाग - 14
‘‘मंथन के मोती’’ में आपका स्वागत है। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
हमारे यहाँ सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। सत्संग का अर्थ है अच्छा संग। तुलसीदास जी ने तो इसे और भी अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने पहले तो यह कहा कि ‘‘बिनु सत्संग विवेक न होई’ यानी कि अच्छे लोगों के संग के बिना ज्ञान नहीं मिलता। फिर इसके भी आगे जाकर उन्होंने कहा ‘बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता’। जब तक ईश्वर की कृपा नहीं होती। तब तक संत नहीं मिलते और जब तक संत नहीं मिलते तब तक सत्संग नहीं होता। जब तक सत्संग नहीं होता तब तक विवेक जागृत नहीं होता और जब विवेक ही जागृत नहीं होगा, तब भला जीवन अच्छा कैसे हो सकता है। इसीलिए तो हमारे बड़े-बूढ़े बचपन से ही अपने बच्चों को बताते रहते हैं-जैसी संगत वैसी रंगत। वे बताते रहते हैं कि अच्छे लोगों के साथ रहने से बुरे लोग भी वैसे ही अच्छे बन जाते हैं जैसे कि चंदन के वृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी में भी चन्दन की सुगन्ध समा जाती है।
बात बहुत स्पष्ट है कि जब भी अच्छे लोग मिलेंगे, कुछ न कुछ अच्छी बातें ही करेंगे। जब वे कुछ न कुछ अच्छी बातें करेंगे, तो कुछ न कुछ अच्छा ही होगा। दुनिया में बहुत से अच्छे काम कुछ अच्छे लोगों के आपस में मिलने के कारण ही हो पाए हैं। तो लीजिए मैं प्रस्तुत करता हूँ इसी तरह का एक सच्चा उदाहरण, जिसने एक ऐसी फिल्म कम्पनी की स्थापना कर दी, जिसे हम विमल दा प्रोडक्शन के नाम से जानत हैं। इस कम्पनी ने देश को ‘सुजाता’ और ‘बंदिनी’ जैसी अनेक कालजयी फिल्में दीं। लीजिए सुनिए इस कम्पनी के बनने की यह कहानी-
मिले होते, तो हमारा देश कई महत्वपूर्ण सामाजिक फिल्मों को देखने से वंचित रह जाता। बिमल दा प्रोडक्शन ने जिन सामाजिक उद्देश्यों को लेकर फिल्में बनाईं, जो मधुर गीत और संगीत उन्होंने भारतीय वातावरण में घोले, वे अपने-आपमें उदाहरण हैं। जब भी हम अच्छे लोगों से मिलते हैं, हमारे मस्तिष्क का वातावरण ठीक उसी तरह से अच्छा हो जाता है जैसे कि हम किसी बागीचे में पहुँचने के बाद महसूस करते हैं। हमारे मस्तिष्क का वातावरण भी हमेशा स्वच्छ, सुन्दर, प्रकाश
‘विमल दा प्रोडक्शन’, जिसने ‘दो बीघा जमीन’ जैसी यथार्थवादी फिल्म बनाई थी, का जन्म अचानक बम्बई की डबलडेकर बस में हुआ था। हुआ यों कि एक बार बिमल दा अपने साथियों-ऋषिकेश मुखर्जी, असीन सेन आदि के साथ मुम्बई के इरोज थियेटर से जापानी फिल्मकार कुरोसावा की ‘रोसोमन’ देखकर लौट रहे थे। बिमल राय ने अपने साथियों से पूछा कि ‘‘हम ‘रोसोमन’ जैसी यादगार फिल्म क्यों नही बना सकते।’’ बस, इसी उद्देश्य से उन्होंने वहीं एक फिल्म कम्पनी बनाने का फैसला कर लिया।
क्या आपको नहीं लगता कि यदि ये तीनों मित्र उस समय नहीं
वान और हवादार बना रहे, इसके लिए आवश्यक हैं कि हम अपने दिन भर का कुछ न कुछ समय अच्छे लोगों की संगत में बिताएँ।
‘‘मंथन के मोती’’ के साथ बिताया गया समय भी एक ऐसा ही अच्छा समय है। क्या ऐसा नहीं है? हमें बताएँ, हमें लिखें, हमें अच्छा लगेगा। आज के लिए इतना ही। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

सोमवार, 6 जुलाई 2009

मन और दिमाग के जालों को साफ़ करें


मंथन के मोती, भाग - 13

आप सभी को मेरा प्रणाम। ‘‘मंथन के मोती’’ के साथ मैं आज फिर कुछ समय आप लोगों के साथ बिताने के लिए उपस्थित हूँ। मेरा विश्वास है कि यह जो थोड़ा-सा समय आप हमें दे रहे हैं, यह आपके जीवन में थोड़ा न थोड़ा तो ज्यादा बनकर वापस आ ही रहा होगा।
आज हम सभी भागम-भाग की जिन्दगी जी रहे हैं। जिससे भी बात कीजिए, वह परेशान सा नजर आता है। हमारी ढेर सारी परेशानियाँ तो ऐसी होती हैं, जिनके लिए हम खुद ही जिम्मेदार होते हैं। ऊपरी तौर पर तो यही लगता है कि यह परेशानी किसी दूसरे के कारण है। लेकिन सच्चाई कुछ अलग ही होती है।
मैंने इस सच्चाई पर खूब गौर किया है और उसी में से एक सच्चाई को मैं अभी आपके साथ शेयर करने जा रहा हूँ।
हमारी परेशानियों का सबसे पहला कारण यह होता है कि हमारे दिमाग में यह बात स्पष्ट ही नहीं होती कि आखिर हम चाहते क्या हैं। कोई धन चाहता है। और जब धन मिल जाता है, तब भी परेशान रहता है। कोई पद चाहता है। जब पद मिल जाता है, तो उसकी परेशानी बढ़ जाती है। संतानहीन दम्पत्ति सन्तान के लिए जाने क्या-क्या करती हैं। जबकि जिसे सन्तान मिली हुई है, वह अपनी सन्तानों से दुखी हैं। सोचकर देखिए कि आखिर यह घालमेल है क्या। जब कोई चीज़ नहीं होती, तब हम उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। और जब वह मिल जाती है, तो वह न केवल दो कौड़ी की हो जाती है, बल्कि हम उससे परेशान होने लगते हैं।
वस्तुतः परेशानी बाहर नहीं होती, हमारे अन्दर होती है। जब हमारे विचार स्पष्ट नहीं होते, तब हमारे उद्देश्य स्पष्ट नहीं होते, तब परेशानी पैदा होने लगती है। और जैसे-जैसे हम अपने विचार और उद्देश्यों में उलझते जाते हैं वैसे-वैसे परेशानियाँ बढ़ने लगती हैं।
इस बारे में मुझे रामकृष्ण परमहंस के साथ घटी एक सच्ची घटना याद आ रही है। मैं आपसे यहाँ इस घटना को प्रस्तुत किए जाने की अनुमति चाहूँगा।
हुआ यूँ कि एक दिन रामकृष्ण परमहंस जी के पास एक सेठ जी आए। उनके हाथ में अशर्फियों की थैली थी। सेठ जी ने वह थैली परमहंस जी के चरणों में रखते हुए उसे स्वीकार करने की प्रार्थना की। परमहंस जी ने कहा कि ‘‘मैं इसका क्या करूँगा? गरीबों को बाँट देना।’’ सेठ जी इस पर बोले कि ‘‘मैं तो यह धन आपको सौंपने आया हूँ। अच्छा होगा कि आप ही इसे गरीबों को बाँट दें।’’ यह सुनकर परमहंस जी को पता नहीं क्या लगा कि उन्होंने अशर्फियों की वह थैली अपने हाथ में ले ली और इसके बार तुरन्त ही वह थैली फिर से सेठ जी को सौंपते हुए बोले-‘‘तुम एक काम करो। इस थैली को पास की नदी में डालकर मेरे पास लौट आओ।’’
सेठ जी यह सुनकर दंग रह गए और परमहंस जी के मुँह की तरफ देखने लग गए। रामकृष्ण जी ने कहा अब यह धन मेरा है। मैं इसका चाहे जो भी करूं। अब यह तुम्हारा नहीं है। तुमको जो काम कहा है, तुम वह करो।’’ सेठ जी मजबूर थे वे वहाँ से चले गये। जब वे दो घंटे तक लौटकर नहीं आए, तो परमहंस जी ने अपने एक शिष्य को सेठ जी की खोज-खबर लेने के लिए भेजा। शिष्य ने वहाँ जाकर देखा कि सेठ जी नदी के किनारे बड़े दुखी मन से बैठे हुए हैं। वे थैली से एक अशर्फी निकालते और नदी में डाल देते। शिष्य ने यह बात आकर परमहंस जी को बताई। परमहंस सुनकर मन ही मन मुस्कराने लगे।
इस कहानी को सुनने के बाद आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर ढूढंने की कोशिश करें कि जब परमहंस थैली नहीं ले रहे थे, तब सेठ जी क्यों दुःखी थे और अब जब थैली लेकर उसे नदी में डालने के लिए कहा है, तब भी सेठ जी दुःखी क्येां हैं। क्या आपको नहीं लगता कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि सेठ जी अपने विचारों में उलझे हुए हैं और उनका उद्देश्य साफ नहीं है। हालाँकि वे थैली तो परमहंस जी को सौंप चुके हैं लेकिन मन से वे धन की थैली से जुड़े हुए हैं। यदि वे यह सोच लेते कि अब यह धन मेरा नहीं है, तो उन्हें उस थैली को नदी में डालने में केवल एक सैकण्ड लगता। लेकिन मन और विचार की उलझन ने उनको पूरी तरह से उलझा दिया है।
हम सब के साथ भी यही होता है। छोटी बातों से लेकर बड़ी-बड़ी बातों तक यही होता है। यदि हम एक बार अपने दिमाग की इन जालों को साफ कर लें, तो आप देखेंगे कि हम खुद को अन्दर से कितने शक्तिशाली महसूस करेंगे। हमारा मस्तिष्क प्रकाशवान हो जाएगा। हमारी आत्मा की शक्ति बढ़ जाएगी और हम एक अलग ही तरह का सरल, सहज जीवन जीने लगे हैं।
आप करके तो देखिए एक बार। अगर आपको इसमें सफलता न मिले, तो आप हमें बताएं। तब हम आपको मंथन के कुछ और ऐसे मोती देंगे, जो आपकी इस सफलता को सुनिश्चित करेंगे। अब मैं अनुमति चाहूँगा। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

रविवार, 5 जुलाई 2009

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब

मंथन के मोती, भाग - १२
सादर नमस्कार। मंथन के मोतियों की थैली में से एक मोती लेकर आज फिर आपके सामने उपस्थित हूं। आज के इस ‘मंथन के मोती’ में हम समय के महत्त्व के बारे में जानना चाहेंगे।
समय को हमारे यहाँ काल कहा गया है। काल यानी कि मृत्यु। मृत्यु यानी कि सबसे बड़ा, जिससे कोई नहीं बच पाया, सिवाय ब्रह्मा, विष्णु और महेश के। तभी तो उज्जैन के शिव को महाकाल कहा गया है।
समय ही तो एक ऐसी वस्तु है, जिसको देने में भगवान तक को समान दृष्टि रखनी पड़ी है। भगवान ने सभी को एक जितना ही समय दिया है, चाहे वह सम्राट हो या सारथी। वहाँ बँटवारे में कोई भेदभाव दिखाई नहीं पड़ता। जो भेद हमें दिखाई देता है, वह इस बात के कारण कि किस व्यक्ति न अपने समय का कितना और किस तरह से उपयोग किया है। जिसने समय को एक बहुत बड़ी पूँजी समझकर उसका तरीके से उपयोग किया, वह सम्राट बन गया और जिसने उसे यूँ ही जाने दिया, वह सारथी रह गया।
इसीलिए तो संत कबीर ने लगभग साढे पाँच सौ साल पहले हम सभी को चेताते हुए कहा था-
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब।
जितने भी महान लोग हुए हैं, उन्होंने कबीरदास के इस दोहे को आत्मसात कर लिया था। वे किसी भी काम को कल के ऊपर टालते नहीं थे। ऐसे महान लोगों में महाभारत के पात्र कर्ण भी शामिल थे। तो आइए, सुनते हैं महादानी कर्ण से जुड़ी यह छोटी-सी घटना-
एक बार की बात है। कर्ण अपने दरबार में बैठे हुए थे। उसी समय उनके दरबार में एक याचक आया। याचक ने अपने हाथ फैलाकर कर्ण से दान मांगा। कर्ण उस समय कुछ काम कर रहे थे। याचक की आवाज सुनते ही कर्ण ने अपना बायां हाथ उठाया और उससे अपने गले का हार निकालकर याचक को दे दिया।
कर्ण के इस कृत्य को एक दरबारी देख रहा था। उसने आपत्ति जताते हुए कहा-‘‘महाराज, अपराध क्षमा हो। आप जानते ही हैं कि बाएं हाथ से दान नहीं दिया जाना चाहिए। जानते हुए भी आपने यह अधर्म क्यों किया?’’ कर्ण ने उत्तर दिया-‘‘याचक ने जब मुझसे दान मांगा, उस समय मेरे आसपास मेरे गले के हार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। उस समय मेरा दायां हाथ व्यस्त था। हो सकता था कि यदि मैं दाएं हाथ को खाली करके दान देने की सोचता तो इतने समय में ही मेरा मन बदल जाता और मैं अपना हार उतारकर उस याचक को नहीं दे पाता। कौन जाने कि पल भर में क्या हो सकता है। इसलिए मैंने अपने बाएं हाथ से ही अपने हार का दान कर दिया।’’आप सोच सकते हैं कि जो व्यक्ति एक-एक पल को इतना महत्त्व देता हो, उसके लिए जीवन में ऊँचाइयाँ छू जाना कोई कठिन नहीं रह जाता।
मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप एक बार इसे आजमाकर देखें। करना आपको केवल यह है कि जिस काम को आप तुरन्त कर सकते हों, उसे तुरन्त कर डालें। टालें नहीं।
अपने दिन भर के समय की एक योजना बना लें कि क्या-क्या करना है। इन कामों की प्राथमिकता निश्चित कर लें और फिर उन्हें करने लगें।
आप केवल ये दो तरीके अपनाएं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि आपकी ढेर सारी दिमागी परेशानियाँ इसी से कम हो जाएंगी। कुछ तो बिल्कुल खत्म ही हो जाएंगी। समय पर आपका नियंत्रण हो जाएगा और जैसे ही यह होगा, आपको अपने कामों में मज़ा आने लगेगा।
आज के मंथन में इतना ही। आप हमें अपने विचारों से अवगत कराएं कि यह मोती आपको कैसे लग रहे हैं। इससे हमें मदद मिलेगी। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

शनिवार, 4 जुलाई 2009

स्वयं का वैल्यू एडिशन कर छुएं सफलता का शिखर

मंथन के मोती, भाग - ११ 
मंथन के मोती के श्रद्धालु दर्शकों को मेरा प्रणाम।
     आज मैं आपके सामने एक बहुत ही व्यावहारिक बात रखने जा रहा हूँ। मुझे आशा है कि इसे आप सभी अपने-अपने जीवन में लागू करके अपनी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए उपयोग में लाएंगे।
भगवद्गीता के बारे में तो आप जानते ही हैं। आपने इसे पढ़ा होगा। यदि पढ़ा न हो, तो इसके बारे में सुना जरूर होगा। यह पूरे विश्व को कर्म का सन्देश देने वाला श्रेष्ठतम् ग्रन्थ है। कर्म ही पूजा है और निष्काम कर्म ही सच्चा संन्यास है, इस आदर्श की स्थापना गीता ने की है।
     जब हम कर्म की बात करते हैं तो ज्यादातर होता यह है कि केवल काम की ही बात होती रहती है। हम यह भूल जाते हैं कि किसी भी काम को करने का अपना एक तरीका भी होता है। इसी तरीके को हमारे शास्त्रों में विज्ञान कहा गया है। ऋग्वेद में ज्ञान और विज्ञान दोनों शब्द आए हैं। वहाँ ज्ञान का अर्थ है-जानकारी तथा विज्ञान का अर्थ है-उस जानकारी का उपयोग करना। इस प्रकार हम विज्ञान को एप्लायड नालेज कह सकते हैं। 
     यहाँ यह स्पष्ट है कि यदि हम ज्ञान का उपयोग नहीं कर रहे हों, तो वह व्यर्थ है। ज्ञान का उपयोग हम तभी कर सकते हैं, जब कोई काम करें। और कोई काम तभी पूरा हो सकता है, जब उसे वैज्ञानिक ढंग से किया जाए। जब हम कोई भी काम चाहे; वह झाडू लगाने, बर्तन मांजने और कपड़े धोने का ही काम क्यों न हो, सही तरीके से करते हैं, तो न केवल वह काम जल्दी होता है बल्कि अच्छा भी होता है। यह कम बड़ी बात नहीं है। जब काम जल्दी होता है और अच्छे तरीके से होता है, तो हमें उस काम को करने में ऊब नहीं होती। बल्कि इसके विपरीत उस काम में आनन्द आने लगता है। यदि किसी काम को करने में आनन्द आने लगे तो इससे बड़ा उपहार भला और क्या हो सकता है।
तो आइए, सुनते हैं धोबी और मुनीम की एक छोटी-सी कहानी।
      एक सेठ जी के यहाँ एक मुनीम जी और एक धोबी था। धोबी गधों पर कपड़े लादकर नदी जाता। गठरी भर कपड़े धोता और फिर लादकर घर वापिस आता। उसका पूरा दिन खप जाता था इसमें। जबकि मुनीम जी दस बजे आते। दिन भर आराम से गद्दी पर बैठे रहते और दिन ढलने के बाद घर चले जाते। धोबी को बहुत कम पैसा मिलता था जबकि मुनीम जी को उससे बहुत ज्यादा। 
      धोबी को यह बात अन्यायपूर्ण लगी। उसने सेठजी से इस बात की शिकायत की कि मुनीम दिन भर बैठा रहता है, जबकि मैं दिन भर जमकर मेहनत करता हूँ। फिर भी मुझे मुनीम से बहुत कम पैसे मिलते हैं। 
एक दिन सेठजी ने धोबी को बुलाया और कहा कि नगर में एक बारात आयी हुई है। जाकर पता करो कि कितने लोग आए हैं। धोबी गया और आकर बताया कि दो सौ लोग आए हैं। सेठ जी ने पूछा कि बारात कहाँ से आयी है? धोबी फिर से गया और आकर बताया कि ‘‘रामपुर से आयी है।’’ सेठ जी ने पूछा कि बारात किसके यहाँ आयी है? धोबी फिर से गया और लौटकर बोला-‘‘सेठ चन्दूलाल के यहाँ आयी है। सेठ जी ने फिर पूछा कि ‘‘बारात रामपुर कब लौटेगी? धेाबी फिर गया और वापस आकर बोला कि परसों।
      उसी के सामने सेठजी ने मुनीम को बुलाया और कहा कि-‘‘मुनीम जी पता करके बताइए कि बारात में कितने लोग आए हैं?’’ मुनीम जी गए और लौटकर बोले कि ‘‘दो सौ लोग। इसके बाद सेठ जी ने वही-वही सारे प्रश्न मुनीम से पूछे जो धोबी से पूछे थे। मुनीम जी ने सभी प्रश्नों के उत्तर तुरन्त दे दिए। यहाँ तक कि जब सेठ जी ने और अधिक जानना चाहा, तो उन सभी के जवाब भी मुनीम के पास मौजूद थे। धोबी यह सब देख रहा था। उसने सेठ जी से माफी मांगते हुए कहा कि ‘‘सेठ जी मैं समझ गया कि मुनीम जी की तनख्वाह मुझसे ज्यादा क्यों है।’’
      यह कहानी भले ही दादा-आदम के जमाने की क्यों न हो, लेकिन है बहुत काम की। हमें दूसरों की थाली में तो ज्यादा घी दिखता है लेकिन हम इस पर कभी विचार नहीं करते कि हमारी थाली में घी क्यों नहीं है। हमें कुछ समय यह सोचने में भी लगाना चाहिए कि हम जो काम कर रहे हैं, कैसे उसे और बेहतर तरीके से करें। इसे ही आज की भाषा में कहा जाता है-वैल्यू एडीशन करना। यही तरीका हमारी कीमत बढ़ाकर हमें उन्नति के शिखर पर पहुँचा सकता है। अन्यथा यदि हम कोल्हू के बैल की तरह लगे रहेंगे, तो काम तो होता रहेगा, जिन्दगी भी चलती रहेगी, लेकिन उसमें वह गुणवत्ता नहीं आएगी, जो वास्तव में आनी चाहिए।
      तो आज की बात यहीं तक। आपसे फिर मिलेंगे। तब तक के लिए मेरा नमस्कार स्वीकार करें।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

जैसा प्रयास, वैसी उपलब्धि


मंथन के मोती, भाग - 10 
नमस्कार। ‘मथन के मोती’ में आप सभी का हार्दिक स्वागत है और अभिनन्दन भी। इस कार्यक्रम में मैं न जाने कहाँ-कहाँ से आपके लिए छोटे-छोटे किन्तु काफी मूल्यवान मोती लेकर आता हूँ। मुझे विश्वास है कि ये मोती आपको जरूर पसन्द आते होंगे। इसी तरह का एक छोटा-सा किन्तु बिल्कुल नया मोती आज मैं आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। आज का यह मोती यहूदी धर्म की मान्यता से जुड़ा हुआ है। तो पहले यह मान्यता सुनें।
यहूदी मान्यता में ‘तालमुड’ के अनुसार ईश्वर गर्भ में हर बच्चे के पास एक व्यक्तिगत फरिश्ते को भेजता है, जो हमें वह सारा ज्ञान देता है, जिसे जानने की जरूरत पड़ेगी। और फिर हमारे जन्म लेने से ठीक पहले अपनी ऊँगली से हमारी नाक और ऊपरी होंठ के बीच हल्के से दबाता है, और हम उसका सिखाया सब कुछ भूल जाते हैं। इसलिए यह हिस्सा थोड़ा दबा हुआ सा होता है, जिसे शरीर-विज्ञान की भाषा में ‘फिलट्रम’ कहते हैं।
अजीब मान्यता है यह। पहले सिखाया, और फिर सब कुछ भुला दिया। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि सीखने का सबसे अच्छा तरीका है, खुद सीखना, उससे खुद गुजरना। यह भी कि यदि कोई चीज एक बार सीख ली जाए, तो उसे दुबारा सीखना आसान हो जाता है। ईश्वर मदद करते हैं-‘‘मैं तुम्हें मंजिल के बारे में यात्रा शुरू करने से पहले ही बता देता हूँ, ताकि जब तुम वहाँ पहुँचो, सब कुछ जाना-पहचाना और आसान लगे।’’
है न कितनी अच्छी और मजेदार मान्यता। आप चाहें तो ईश्वर से शिकायत कर सकते हैं कि यदि भूलाना ही था तो फिर सिखाया क्यों? यहूदी मान्यता में हमें इसका बहुत सुन्दर जवाब मिलता है। जवाब यह है कि इस धरती पर कोई भी वस्तु हमें यूँ ही नहीं मिलेगी। वह वस्तु मौजूद तो है, लेकिन उसे प्राप्त करना होगा। कोई हमें थाल में रखकर नहीं देगा और यदि दे भी देता है, तो उसकी हमारे लिए कोई कीमत नहीं रह जाती। 
अभी मेरे दिमाग में यह एक प्रश्न आ रहा है कि अधिकांश देवी के मन्दिर पहाड़ियों पर ही स्थित क्यों रहते हैं? माँ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए बारह किलोमीटर की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। यहाँ तक कि अन्य देवियों के मन्दिरों पर माथा टेकने के लिए कुछ-न-कुछ ऊँची चढ़ाई चढ़नी ही पड़ती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह भी इसी मान्यता से जुड़ी हुई बात हो। शायद माँ चाहती हों कि मेरे पास वही आए, जो सच में आना चाहता है। ऐसा नहीं कि यूँ ही रास्ते से गुजर रहे थे और सोचा कि चलो दर्शन भी कर लें। यदि माँ के दर्शन करने हैं, तो उसके लिए उद्देश्य बनाना पड़ेगा और उद्देश्य बनाने के बाद थोड़ी-सी चढ़ाई भी चढ़नी पड़ेगी। हाँ, चढ़ाई चढ़ सकें इसके लिए हमें पैर दे दिए गए हैं। इन पैरों को गतिशील अब हमें स्वयं करना होगा तब कहीं जाकर हम अपने लक्ष्य तक पहुँच सकेंगे।
यदि हम जीवन में श्रम के और कर्म के इस महत्त्व को पूरे खुले मन से स्वीकार कर लेते हैं, तो हमारी कई कठिनाईयाँ अपने-आप ही समाप्त हो जाती हैं। यही हालत होती है, हमारी अनेक शिकायतों की भी। हम सभी को उतना ही मिलता है, जितनी की पात्रता हममें होती है। जितना बड़ा होगा हमारा पात्र, ईश्वर के द्वारा दी गई उतनी ही भिक्षा उसमें समाएगी। जैसे होंगे हमारे प्रयास, वैसी ही होगी हमारी उपलब्धि। अभिलाषाओं से उपलब्धियाँ नहीं मिला करतीं। हमसे गलती यही होती है कि हम अभिलाषा करते हैं और जब यह पूरी नहीं होती, तो शिकायत करते हैं।  
तो आइए, हम अपने अभिलाषाओं को कर्म का सहारा दें, ताकि वे अभिलाषाएँ उपलब्धियाँ बन सकें। आज के मंथन में बस इतना ही। आगे आपसे फिर भेंट होगी। अंत में एक निवेदन यह कि आपको यह कार्यक्रम कैसा लगा, हमें जरूर बताएँ ताकि हम इसे और अच्छे-से-अच्छा बना सकें।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है


रविवार, 28 जून 2009

जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ शाम

मंथन के मोती, भाग - ९
मैं आज फिर से आपके लिए मंथन के कुछ मोती लेकर आया हूँ। आप सबको मेरा प्रणाम। आज के इस कार्यक्रम के आरंभ में मुझे फिल्मी गीत की एक पंक्ति याद आ रही है, जिसे मैं आपके साथ शेयर करना चाहूँगा। इस गीत की पहली लाईन है-‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ शाम।’ कितनी सुन्दर पंक्ति है यह। थम जाने के बाद तो जीवन खत्म ही हो जाता है, फिर चाहे हमारा सीना साँस के आने-जाने से धौकनी की तरह फूलता-पिचकता ही क्यों न रहे।
जब यहाँ मैं चलने की बात कह रहा हूँ, तो वह शरीर के ही चलने की बात नहीं है, बल्कि उससे भी कहीं अधिक चेतना के चलने की बात है। यह ऐसे चलने की बात है, जहाँ हम कहीं भी न तो थककर बैठते हैं और न ही घबराकर अपना रास्ता छोड़ देते हैं। यह वह चलना है, जब जीवन के हर पल को हम पूरे उल्लास से जीने की कोशिश करते हैं और यहाँ तक कि तब भी, जबकि हमें मालूम है कि अगले ही पल मृत्यु होने वाली है। मृत्यु के अंतिम क्षण तक को अपने कर्म से पकड़ लेना सही मायने में जिन्दगी भर चलते चले जाना है।
तो इसके बारे में मैं आपको इतिहास की एक ऐसी सच्ची घटना सुनवाने जा रहा हूँ, जिस पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल होता है।
सनाका रोम के महान दार्शनिक और सम्राट नीरो के गुरू थे। उन्होंने नीरो को सम्राट बनाने में उसकी माँ की मदद भी की थी। नीरो को शक हो गया कि उसके राजगुरू सनाका उसके विरूद्ध षड़यंत्र कर रहे हैं। नीरो ने सनाका को राजदरबार में नस काटकर बूँद-बूँद रक्त के बहने से होने वाली मौत की सजा दी। सनाका ने घर जाकर परिवार से विदा लेना चाहा। लेकिन नीरो ने इसकी तक इजाजत नहीं दी। सनाका ने कहा-‘‘दर्शन की पुस्तकें मंगवा दो।’’ उनकी यह इच्छा भी ठुकरा दी गई। तब उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा-‘‘आ जाओ! हम दर्शन पर यहीं चर्चा करेंगे। इससे अच्छा अवसर भला और क्या होगा।’’
सचमुच, मुझे विश्वास ही नहीं होता ऐसे लोगों के बारे में सुनकर कि ये सब किस धातु के बने हुए होंगे? कैसा होगा इनका मन और इनकी आत्मा कितनी अधिक शक्तिशाली होगी। ये वे लोग थे, जिन्हें यमराज तक नहीं डरा सका फिर भला जीवन की अन्य परेशानियाँ तो इन्हें क्या डरा पातीं।
महान दार्शनिक सुकरात और सनाका जैसे लोगों में यह जो शक्ति आती है, यह मूलतः उनके चरित्र की दृढ़ता और अपने विचारों की प्रतिबद्धता के कारण आती है। यदि हम अपने उद्देश्यों के प्रति संकल्पबद्ध हो जाते हैं, और संकल्पबद्ध होकर उसमें अपने-आपको पूरी तरह झोंक देते हैं, तो हमारे लिए कोई भी भय, भय नहीं रह जाता। हम अभय हो जाते हैं। तभी तो प्रेम दीवानी मीरा के लिए जहर का प्याला भी अमृत का प्याला बन गया था। मुझे लगता है कि हमें भी अपने जीवन में आत्मा की इस शक्ति को पाने के प्रयास करने चाहिए। ऐसा हो सकता है, इसमें कतई सन्देह नहीं है। अपनी चेतना में सात्विक भावों को स्थान देकर धीरे-धीरे हम इस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
अपने इन्हीं शब्दों के साथ अब आपसे अनुमति चाहूँगा। साथ ही यह भी चाहूँगा कि आप हमें बताएँ कि ये मोती आपको कैसे लग रहे हैं। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

गुरुवार, 25 जून 2009

मंथन के मोती, भाग-८

आप सभी को विजय अग्रवाल का सादर नमस्कार। आज ‘‘मंथन के मोती’’ में मैं कुछ ऐसे सुन्दर और महँगे मोती लेकर आया हूँ, जिनके बारे में जानकर आप गदगद हो उठेंगे। ये वे मोती हैं, जो आपके अन्दर कुछ भी कर गुजरने का उत्साह पैदा कर देंगे।
जब कभी हम किसी भी क्षेत्र के सफल और महान लोगों को देखते हैं, तो हमारी गर्दन श्रद्धा से झुक जाती है। हम उनकी प्रशंसा करते हैं और कहीं-न-कहीं हमारे मन में भी यह भाव उठता है कि काश! हमारे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होता। जी हाँ, हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है बशर्ते कि हम इसके लिए जी-जान से जुट जाएँ।
इस दुनिया में ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जो यदि की जा सकती है, तो उसे आप नहीं कर सकते। यदि कोई दूसरा कर सकता है, तो निश्चित रूप से आप भी कर सकते हैं। और जिन लोगों ने भी यह सब कुछ किया है, वे भी पहले ऐसे कुछ नहीं थे, जिन्हें देखकर उस समय के लोग यह अनुमान लगा सकते थे कि वे ऐसा कर गुजरेंगे। वह तो बस उनमें एक जोश था, एक उत्साह था जिसकी डोर पकड़कर वे लगतार ऊपर की ओर चढ़ते चले गए। ये न तो धनी परिवारों में पैदा हुए थे, न ही इन पूतों के पाँव ऐसे थे, जो पालने में दिखाई देते हों। इनके साथ न तो कोई चमत्कार हुआ और न ही किसी ने सफलताओं का ताज सीधे-सीधे इनके सिर पर रख दिया। इसके बावजूद इन्होंने अपने जीवन में जिन ऊँचाइयों को छुआ, वे अविश्वसनीय-सी लगती हैं।आइए, तो सबसे पहले हम अलग-अलग क्षेत्रों में सफल हुए कुछ ऐसे ही महान लोगों के नाम जानें-
1 महान वैज्ञानिक थाम अल्वा एडीसन ने बारह साल की उम्र में सिर पर टोकरी रखकर सब्जियाँ बेचीं और फिर ट्रेन में न्यूज पेपर बेचा।
2 एक समय दुनिया के सबसे धनी कहे जाने वाले व्यक्ति एण्ड्र्यू कारनेगी ने चार डालर प्रतिमाह से काम शुरू किया था। जान डी रॉक फेलर की कमाई कारनेगी से दो डालर प्रति सप्ताह अधिक थी।
3 अमेरीका के महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन एक केबिन में पैदा हुए थे।
4 महानतम् दार्शनिक और वक्ता डेमोस्थनिज हकलाते थे। जब उन्होंने पहली बार सार्वजनिक रूप से भाषण देने की कोशिश की, तो लोगों ने उनकी हँसी उड़ाकर उन्हें मंच से भगा दिया था।
5 रोम का महान शासक जूलियस सीजर मिर्गी के शिकार थे।
6 फ्रांस के सम्राट नेपोलियन के माता-पिता गरीब थे और मिलिट्री अकादमी में 65 लोगों की कक्षा में उनका स्थान 46वाँ था।
7 अपने संगीत की धुनों से श्रोताओं को सिसकियाँ लेने के लिए मजबूर कर देने वाले महान संगीतकार विथोविन बहरे थे।
8 महान लेखक चाल्र्स डिकेन्स लंगड़े थे।
9 महान कवि होमर अंधे थे और प्लूटो कुबड़े।
10 आप जानते ही हैं कि अष्टवक्र का शरीर आठ जगहों से टेढ़ा था और महान कवि सूरदार अंधे थे।
इन लोगों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इन्होंने अपने शरीर को कभी भी अपनी सीमा बनने नहीं दिया। इन लोगों ने अपनी आत्मशक्ति का इतना अधिक विस्तार किया, उसे इतना अधिक ऊँचा उठाया कि शरीर उनके सामने बौना पड़ गया। शायद ऐसे लोगों को ही देखकर किसी शायर ने ये पंक्तियाँ लिखीं होंगी-
खुद ही को कर बुलन्द कि हर तकदीर से पहले
खुदा बंदे से यह पूछे बता तेरी रज़ा क्या है।
इसी धरती पर कई लोगों ने अपनी जीजीविषा के जरिए यह सिद्ध करके दिखाया है कि यदि इच्छाशक्ति प्रबल हो, तो किसी भी सफलता को पाया जा सकता है। इन सभी लोगों के पास इस बात का बहाना बनाने के पर्याप्त कारण थे कि मैं यह काम कर ही नहीं सकता, क्योंकि मैं स्वस्थ नहीं हूँ। इसके विपरीत इन्होंने हमेशा यही सोचा कि ‘‘मैं कुछ भी कर सकता हूँ, क्योंकि मैं मानव हूँ।’’
मुझे लगता है कि हमें इस बात पर विश्वास करना ही चाहिए कि यदि ईश्वर हमारे लिए एक दरवाजा बन्द करता है, तो सैकड़ों अन्य दरवाजे खोल भी देता है। हमसे चूक यह हो जाती है कि उस एक दरवाजे के बंद हो जाने के कारण हमारी आँखें भर आती हैं और वे उन सैकड़ों खुले हुए दरवाजों को देख नहीं पातीं, जो हमारी प्रतीक्षा कर रही हैं।
तो आइए, इस मंत्र को आत्मसात करके अपनी चेतना में अंकित कर लें कि ‘मैं कुछ भी कर सकता हूँ, क्योंकि मैं अमृत-संतान हूँ।’’‘‘मंथन के मोती’’ में आपसे फिर भेंट होगी। तब तक के लिए आज्ञा दें। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

मंगलवार, 23 जून 2009

नए रास्तों पर चलें, सफलता आपके कदम चूमेगी

मंथन के मोती, भाग - ७
‘मंथन के मोती’ में मैं विजय अग्रवाल आपका हार्दिक अभिनन्दन करता हूँ। मेरे इस अभिनन्दन को स्वीकार करें।
मुझे विश्वास है कि आपने यह कहावत जरूर सुनी होगी - ‘लीक छोड़ तीनो चले, शायर, सिंह, सपूत। यानी कि सच्चा कवि, शेर और सुपुत्र हमेशा बने बनाए रास्तों को छोड़कर नए रास्तों पर चलते हैं। ये वे लोग होते हैं, जो अपने लिए खुद रास्ता बनाते हैं। और बाद में इनके बनाए गए रास्ते पर दुनिया चलती है। ऐसे लोगों को आप नेतृत्त्व करने वाला कह सकते हैं।
सच तो यही है कि विश्व का आज जितना भी विकास हुआ है, जिन्होंने हमारे जीवन को इतना आसान बनाया है, वे ऐसे ही लोगों के कारण संभव हो सका है, जिन्होंने बने बनाए रास्ते पर चलने से इंकार कर दिया था। हालाँकि रास्ते तो थे और वे चाहते, तो उसी पर चलकर अपना जीवन पूरा कर सकते थे। लेकिन उन्हें वह स्वीकार नहीं था। उनके अन्दर कुछ कर गुजरने का जो तूफान उठ रहा था, उसके कारण उन्होंने नए रास्ते पर चलने का निर्णय लेकर दुनिया के लिए एक नया रास्ता तैयार किया।
तो आपके सामने इस बारे में मैं एक बहुत रोचक घटना पेश कर रहा हूँ, जो महान खोजी यात्री कोलम्बस से जुड़ी हुई है, उस कोलम्बस से जिन्होंने अमेरीका की खोज की थी।
एक बार कोलंबस को एक दावत में आमंत्रित किया गया, जहाँ उन्हें मेज पर सबसे सम्मानजनक स्थान दिया गया। उनसे ईष्र्या करने वाले एक व्यक्ति ने अचानक पूछा-‘‘आपने इंडीज को खोजा है। परन्तु क्या स्पेन में दूसरे लोग नहीं हैं, जो इस काम को करने में सक्षम हैं।’’
कोलंबस ने कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने एक अंडा उठाया और लोगों से कहा कि वे इसे एक सिरे पर खड़ा कर दें। सबने ऐसा करने की कोशिश की, लेकिन कोई न कर सका। इस पर कोलबंस ने उसे मेज पर ठोंका, उसके एक सिरे को पिचकाया और उसे खड़ा छोड़ दिया।
वह व्यक्ति चिल्लाया-‘‘इस तरीके से तो हम सब यह कर सकते थे।’’
कोलंबस ने जवाब दिया-‘‘हाँ, आप कर सकते थे, बशर्ते आप जानते कि ऐसा कैसे किया जा सकता है। इसी तरह एक बार जब मैंने आपको संसार का रास्ता दिखा दिया, तो उसका अनुसरण करने से आसान कुछ नहीं है।’’क्या आपको नहीं लगता कि आपके अन्दर भी एक छोटा-सा कोलंबस बैठा हुआ है और आप भी दुनिया के लिए कोई नया रास्ता तैयार कर सकते हैं। फिर चाहे वह छोटी-सी पगडंडी ही क्यों न हो। विश्वास कीजिए कि ऐसा है। लेकिन अधिकांश लोगों के साथ दिक्कत यह होती है कि हम अपने कंधे पर कुदाल लेकर नया रास्ता बनाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। जबकि हमें यह साहस दिखाना चाहिए। यदि हम दूसरों के द्वारा बनाए रास्ते पर चल रहे हैं, तो यह हमारा धर्म बनता है कि हम भी एक नया रास्ता बनाएँ, जिस पर दूसरे चल सकें। मैं आपको सच बताऊँ कि इस रास्ते को बनाने का सुख बहुत अद्भुत होता है। यही तो वह चीज़ होती है जिसे आप पूरे गर्व के साथ कह सकते हैं कि ‘हाँ, यह मेरी है, क्योंकि इसे मैंने बनाया है।’’ सोचकर देखिए कि गर्व की यह अनुभूति कितना अधिक आनन्द देती होगी।
तो टटोलिए अपने अन्दर के उस कोलंबस को और आप जो कुछ भी कर रहे हैं सोचिए कि कैसे उसे नए तरीके से कर सकते हैं या कैसे उसमें कुछ नया डाल सकते हैं। आप पाएँगे कि आपका जीवन एक नया जीवन बन गया है।
तो इसी के साथ अब बिदा लेता हूँ। हमें आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

सोमवार, 22 जून 2009

मंथन के मोती, भाग - ६

‘‘मंथन के मोती’’ में मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

आज के मंथन के मोती में मैं एक ऐसी रोचक और सच्ची कहानी लेकर आया हूँ, जिसके कई-कई पात्र हैं और ये सभी पात्र आपके जाने-पहचाने हैं। ये आपके श्रद्धेय भी हैं। साथ ही इस एक कहानी में ही आपको कई-कई सन्देश मिलेंगे। इस एक कहानी की थैली में ही आपको कई अच्छे-अच्छे मोती प्राप्त होंगे। तो इससे पहले कि मैं आपको उन मोतियों का परिचय दूँ, ज्यादा अच्छा होगा कि आप इस कहानी को सुनें-

बात 19६2 की है। चीन के हमले के बाद दिल्ली के जिस कार्यक्रम में लता मंगेशकरजी ने ‘ए मेरे वतन के लोगों’ गाया था, उसके अगले दिन उन्हें पंडित नेहरू ने प्रधानमंत्री आवास पर चाय के लिए आमंत्रित किया। वे वहाँ पहुँची, तो इंदिरा जी और उनके दोनों बेटों; राजीव और संजय ने उनसे आग्रह किया कि वे कल वाला गीत सुनाएं। लता जी ने साफ कह दिया कि ‘‘मैं तो किसी के घर में गाती नहीं हूँ।’’ पंडित जी ने कहा ‘इंदु, तू क्यों इस लड़की को परेशान कर रही है।’ इंदिरा जी का जवाब था-‘पापा, बच्चे सो गए थे कल रात को। उन्होंने सुना नहीं।’’ नेहरू जी ने कहा, जब रिकार्ड बनकर आएगा, तब सुना देना।’’

लेकिन जब प्रसिद्ध फिल्मकार महबूब खान बहुत बीमार थे, और कैलिफोर्निया के एक अस्पताल में भर्ती थी, तब दिलीप कुमार की सूचना पर लताजी ने महबूब को फोन लगाया। बीमार पड़े महबूब ने फरमाइश की कि वे उन्हें फिल्म ‘अलबेला’ का गीत ‘धीरे से आ जा री अखियन में, निंदिया आ जा तू आ जा, धीरे से आजा’’ सुना दें, तो लता जी ने बिना किसी हील-हुज्जत के फौरन वह गीत गा दिया। इसी तरह उन्होंने कवि प्रदीप और पंडित नरेन्द्र शर्मा के सामने खुद जाकर गीत सुनाए हैं।

मुझे विश्वास है कि यह सच्ची घटना आपको जरूर अच्छी लगी होगी। अब आइए, देखते हैं कि यह एक घटना कौन-सी कई-कई बातें कहती है -

१. पहली बात तो यह कि लता जी ने अपने इस सिद्धान्त से समझौता नहीं किया कि ‘मैं किसी के घर में नहीं गाती।’ उन्होंने प्रधानमंत्री नेहरू जी के घर तक भी अपने इस सिद्धान्त को बनाए रखा।

२. दूसरी बात यह कि नेहरू जी उस समय देश के प्रधानमंत्री थे। यदि वे लता जी से फिर से आग्रह करते, तो शायद लता जी द्वन्द्व में पड़ जातीं। लेकिन पंडित नेहरू की महानता देखिए कि उन्होंने अपनी उम्र से बहुत छोटी गायिका की भावनाओं और सिद्धान्तों का सम्मान करते हुए उन पर गाने के लिए दबाव नहीं डाला। यह कम बड़ी बात नहीं थी।

३. तीसरा यह कि पंडित नेहरू के घर पर गीत न गाने वाली उन्हीं लता मंगेशकर को जब फिल्मकार महबू खान के लिए फोन पर गाना पड़ा तो उन्होंने बिना समय लगाए तुरन्त ही एक गीत सुना भी दिया। यानी कि लता जी ने अपने उस सिद्धान्त में इतना लचीलापन रखा कि कहाँ इसका उपयोग किया जाना चाहिए और कहाँ नहीं। यहाँ उनका गीत गीत न होकर एक तरह से महबूब खान के लिए आत्मा की खुराक था। साथ ही इस गीत के माध्यम से वे महबूब खान के प्रति अपनी श्रद्धा भी व्यक्त करना चाहती थीं।

तो देखा आपने कि महान लोगों की किस प्रकार की जुगलबंदियाँ हुआ करती हैं। ये लोग कठोर भी हैं, लेकिन अन्दर से कितने कोमल भी। इन लोगों को बहुत से लोगों का सम्मान इसलिए मिलता है क्योंकि ये खुद दूसरे लोगों का सम्मान करते हैं। ये लोग महान इसलिए हैं, क्योंकि ये मनुष्यता के महत्त्व को जानते हैं।

आज बस इतना ही। मंथन के मोती में आपसे फिर भेंट होगी। नमस्कार। हम चाहेंगे कि आप इस कार्यक्रम के बारे में हमें लिखें। इससे हमें खुशी होगी, और मदद भी मिलेगी।

नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।





रविवार, 21 जून 2009

गैलीलियो से सीखें जीवन का सिद्धांत


मंथन के मोती, भाग- 5

‘‘मंथन के मोतियों’’ के श्रद्धालु दर्शकों को मेरा शत-शत प्रणाम।

आपने सुना ही है कि जिन्दगी जिंदादिली का नाम है। इसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि जिन्दगी जीने के लिए है। न तो यह घसीटने के लिए है और न ही यह नष्ट किए जाने के लिए है। यह हमारी अपनी सम्पत्ति नहीं है कि हम इसके साथ जैसा व्यवहार करना चाहें वैसा करें। सच तो यह है कि यह हमको सौंपी गई एक ऐसी अमूल्य धरोहर है, जो ईश्वर ने हमें सौंपी है। धरोहर पर हमारा अधिकार नहीं होता बल्कि दायित्त्व होता है। यह दायित्त्व होता है-इसे सम्हाले रखने का, ताकि जब इसका मालिक इसे मांगे, तो हम उसे सौंप सकें, कबीरदास की तरह कि ‘जस की तस धर दिनी चदरिया’।

हमारा जीवन जो आज है, वही आगे नहीं रहेगा। इसमें हमेशा अनन्त संभावनाएँ छिपी रहती हैं, लेकिन वे संभावनाएँ तभी सच में परिवर्तित हो सकेंगी, यदि जीवन हमारे पास होगा। यदि जीवन ही नहीं होगा, तो फिर संभावनाएँ भी नहीं होंगी। इसलिए सबसे बड़ी बात है-जीवन का बने रहना, जीवन का होना। मैं ऐसे किसी भी सिद्धान्त, किसी भी दर्शन और किसी भी नीति शास्त्र का समर्थन नहीं कर पाता, जो जीवन को नष्ट करने का समर्थन करता हो। फिर चाहे वह खुद का जीवन हो या बहुत सारे लोगों का जीवन। इस दृष्टि से मुझे महान वैज्ञानिक गैलीलियो बहुत पसन्द आते हैं। तो आइए, इससे पहले कि आप उनकी समीक्षा करें, उनके जीवन के इस महत्त्वपूर्ण भाग को जानें-

विशेष आयोग की रिपोर्ट में गैलीलियो पर कई तरह के अभियोग लगाए गए, जिसमें मुख्य था कि उन्होंने 1616 के चर्च के उस आदेश का उल्लंघन किया है, जिसमें कॉपरनिकस के सिद्धान्त को पढ़ने, मानने या उसके बारे में लिखने पर रोक लगाई गई थी। इसके बाद मामला धार्मिक अदालत को सौंप दिया गया। गैलीलियो के इस आग्रह को भी ठुकरा दिया गया कि उनकी अधिक उम्र को देखते हुए उनके मुकदमे की सुनवाई उनके गृहनगर फ्लोरेंस में की जाए। फलतः 23 दिन की यात्रा करके वे रोम पहुँचे। इससे वे कितने दुःखी थे, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे कई दिनों तक लगातार रोते रहे थे।

मुकदमे के दौरान उन्हें धर्माधिकरण की इमारत में कैद करके रखा गया। मुकदमे की सुनवाई दस कार्डिनलों वाली एक पीठ ने की। अदालत ने गैलीलियो के सामने यह प्रावधान रखा कि यदि वे चर्च द्वारा दिए गए वक्तव्य को जनता के सामने पढ़ देंगे, तो उनके साथ कुछ रियायत की जा सकती है। हताश गैलीलियो ने यह बात स्वीकार कर ली, क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा न करने पर उन्हें मृत्युदण्ड भी मिल सकता है। उन्होंने घुटनों के बल बैठकर वक्तव्य पढ़ दिया कि ‘‘मैं उस सिद्धान्त की निन्दा करता हूँ, जो यह कहता है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।’’ कहा जाता है कि जब गैलीलियो उठकर खड़े हुए, तो उन्होंने पृथ्वी पर जोर से लात मारते हुए कहा कि ‘‘तू अभी तक घूम रही है।’’

है न कितनी मजेदार बात। गैलीलियो के लिए अपना जीवन महत्त्वपूर्ण था। उतना ही महत्त्वपूर्ण था, उनके लिए अपना वह सिद्धान्त, जिसे वे सही मानते थे। उन्होंने बहुत अच्छा रास्ता यह निकाला कि जीवन को भी बचा लिया और सिद्धान्त को तो बचना ही बचना था क्योंकि वह प्रकृति का सिद्धान्त था, जिस पर न्यायालय के निर्णय लागू नहीं हो सकते। इसलिए उन्होंने पृथ्वी पर जोर से लात मारते हुए यही कहा कि ‘‘मेरे निन्दा करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है क्योंकि होता तो वही रहेगा जो होना चाहिए।’’

मुझे लगता है कि हम सभी को गैलीलियो की इस घटना से अपनी जिन्दगी के महत्त्व का सन्देश लेना चाहिए। इस जीवन को बनाए रखना हम सभी का धर्म है, क्योंकि यह प्रकृति के द्वारा इस धरती को दिया गया सर्वोत्तम उपहार है और हमें सौंपी गई सबसे बड़ी धरोहर है।

फिलहाल इतना ही। आगे आपसे फिर मिलूँगा। तब तक के लिए विश्राम की आज्ञा चाहता हूँ।

हमे बताते रहें कि आपको कैसा लग रहा है हमारा यह प्रोग्राम।

नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था. उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है.

शुक्रवार, 19 जून 2009

कोमल हाथों के स्पर्श का जादू


यह ११ अक्टूबर १९९६ की घटना है और यह घटित हुई चेक गणराज्य की राजधानी प्राग के कैसल में, जिसे आप अपने यहां की तर्ज पर वहां का राष्ट्रपति भवन कह सकते हैं। इस छोटी सी किंतु काफी बड़ी घटना के नायक हैं चेक गणराज्य के तत्कालीन राष्ट्रपति वात्स्लाव हावेल।
हावेल साहब की जितनी ख्याति चेक के एक सफल लोकप्रिय एवं महान राष्ट्रपति के रूप में है उससे भी कहीं अधिक वे विश्व के श्रेष्ठ नाटककारों में जाने जाते हैं। उस दिन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा का इसी प्राग कैसल में राजकीय स्वागत हुआ। सारी औपचारिकताओं के बाद विदाई का वक्त आया।
हावेल साहब अपने इस महल से निकलकर बाहर के खुले हिस्से में सभी को निजी तौर पर विदाई देने आए। भारतीय प्रतिनिधिमंडल के उपस्थित सदस्यों में से शायद ही कोई इतना बदकिस्मत रहा होगा, जिनके कंधों पर हाथ रखकर उन्होंने विदाई न दी हो। लेकिन हम लोगों ने विदाई ली कहां। उनके छोटे-छोटे कोमल हाथों का स्पर्श इतना स्नेहपूर्ण था कि उन्हें विदाई न देते हुए अपने दिलों में बसाकर चले आए।
12 साल पहले की इस घटना को याद करने का कारण यह है कि आज स्पर्श की बात तो दूर, आदमी के दर्शन को भी दुर्लभ बनाया जा रहा है। ईमेल ही गांव की चौपाल और पनघट बन रहा है, जहां आप उनका चेहरा-मोहरा देखे बिना ही उनसे बातें कर रहे हैं और केवल उतनी ही बातें कर रहे हैं जिससे आपका काम चल जाए।
आदमी की सच्ची सफलता और सच्चे विकास का मापदंड यही है कि वह कितने लोगों के जेहन में रचा-बसा हुआ है। किसी के जेहन में जगह लूटने से नहीं, वरन लुटाने से बनती है, फिर चाहे आप दौलत लुटाएं या दिल। वात्स्लाव हावेल जैसे लोगों की महानता और सफलता का राज इसी में है कि उन्हें जहां भी मौका मिलता है, अपने दिल का एक छोटा सा टुकड़ा उछाल देते हैं।
नोट - यह आलेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है.

गुरुवार, 18 जून 2009

हाथ से लिखी चिठ्ठी का महत्व


‘अब तो उसकी बेटी की शादी में जाना ही पड़ेगा,’ उनकी इस निर्णायक घोषणा ने मुझे चौंका दिया, क्योंकि अभी तक वे वही ठानकर बैठे हुए थे कि ‘मुझे नहीं जाना रंजना की शादी में।’ इस लौहपुरुष ने आखिर कैसे इतनी जल्दी अपने फैसले को पिघला दिया, मुझे इसका कारण जानने की बेहद बेचैनी होने लगी। मुझे इसका जो उत्तर मिला, उसे सुनकर मैं दंग रह गया। उनका छोटा-सा उत्तर था- ‘अभी-अभी शादी की दस्ती चिट्ठी आई है।’
‘दस्ती चिट्ठी’ यानी कि ‘हाथ से लिखी हुई चिट्ठी।’ तो क्या सचमुच हाथ से लिखी चिट्ठी में इतनी आंच होती है कि वह ‘न जाने’ के लोहे को पिघलाकर ‘जाने’ में तब्दील कर देती है? होती है, तभी तो यह हुआ। आगे भी होती रहेगी, तभी तो मैं यह बात आप सब तक पहुंचा रहा हूं।
दोस्तो! यहां सवाल दस्ती चिट्ठी का नहीं, बल्कि भावना के उस अद्भुत और अतुल स्पर्श का है, जिसे हम आम शब्दावली में ‘पर्सनल टच’ कहते हैं। ई-मेल, एसएमएस, ग्रीटिंग कार्ड और मोबाइल के इस महंगे जमाने में भी हाथ से लिखी हुई चिट्ठी की चाहत आदमी की उस मूल आस्था से जुड़ी हुई है, जिससे वह विमुख नहीं होना चाहता। इसलिए यह छोटी-सी घटना, यह छोटी-सी दस्ती चिट्ठी विराट रोबोट के विरोध में फहराती रहने वाली विजय पताका की तरह हम सभी के दिल और दिमाग में हमेशा-हमेशा के लिए रच-बस गई है।
‘पर्सनल टच’ की ताकत को पहचानने वाले जानते हैं कि वे काम जिन्हें धन, पद, शक्ति और लाखों तर्क-वितर्क नहीं कर पाते, उसे यह कर दिखाता है। प्रकृति ने हमें यह यूं ही दिया है। हमें इसे यूं ही नहीं जाने देना है।
नोट - यह आलेख दैनिक भास्कर में बुधवार, १९ नवम्बर , २००८ को प्रकाशित हो चूका है.

बुधवार, 10 जून 2009

सूचना की ताकत कितनी असरकारी है

वह और उसका छोटा-सा पुराना ट्रांजिस्टर दोनों एक-दूसरे के पूरक थे। वह जहां भी होता था, वहां उसका यह ट्रांजिस्टर भी होता था। आज के जमाने में मुझे यह जोड़ी कुछ अजीब लगती थी, इसलिए एक दिन मैं पूछ ही बैठा।
उसने बताया कि इस ट्रांजिस्टर ने ही मुझे आईएएस बनाया है। मुझे समझाने के लिए उसने खुलासा किया कि दरअसल बात यह है कि मैं बचपन से ही न्यूज सुनने का आदी था। एक दिन मैंने रात के पौने नौ बजे की न्यूज में सुना कि अब आईएएस की परीक्षा हिंदी में भी दी जा सकती है। मैं था गांव का रहने वाला। अखबार आते नहीं थे। अंग्रेजी मुझे नहीं आती थी। यदि उस दिन मैं यह खबर नहीं सुन पाता, तो फिर मैं इसके लिए सोच भी नहीं सकता था।
आमतौर पर तो हम सभी को यही लगता है कि एक बड़ी उपलब्धि बड़ी बातों से मिलती है, लेकिन बड़ा सच तो यह है कि छोटी-छोटी बातें ही मिलकर बड़ी बनती हैं, बशर्ते हम उन छोटी बातों को पकड़ लें। दोस्तो! इस सच्ची कथा को सुनने के बाद मैंने तीन बातें हमेशा-हमेशा के लिए अपनी गांठ में बांध लीं। पहली बात तो यह कि जिंदगी में कभी भी सूचनाओं की उपेक्षा नहीं करूंगा।
न जाने कौन सी सूचना जिंदगी को बदल देने वाली सिद्ध हो जाए। हो सकता है कि एक सूचना को खोने का अर्थ एक सफलता को खोना ही हो। दूसरे यह कि अच्छी चीजों को जीवन की आदत बनाऊंगा, जैसा कि उसने समाचार सुनने को बनाया था। और तीसरी तथा आखिरी बात यह है कि जितना भी मेरी जिंदगी को बनाने और बढ़ाने में योगदान रहा है, मैं उन्हें हमेशा याद रखूंगा, जैसा कि मेरा वह मित्र ट्रांजिस्टर के साथ करता है।

सोमवार, 8 जून 2009

गहराई में जाने से मिलती है सफ़लता

मंथन के मोती, भाग - ४


नमस्कार। ‘‘मंथन के मोती’’ में आपका स्वागत है और अभिनन्दन भी। आज के इस एपीसोड में मैं जिन्दगी की एक बड़ी मजेदार बात आपसे करने जा रहा हूँ। आपने यह कहावत सुनी ही है कि ‘जिन खोजा तिन पाईयाँ गहरे पानी पैठ।’ इसका अर्थ बड़ा सीधा-सा है कि जो खोजता है, उसे मिल ही जाता है, बशर्ते कि वह थोड़े-से गहरे पानी में उतरे। हम लोग अक्सर अपने जीवन में जो असफल होने की शिकायत करते हैं, उसका कारण यही होता है कि हम पानी में तो उतरते हैं, लेकिन उसकी गहराई में नहीं उतर पाते। हम मेहनत तो करते हैं, लेकिन इतनी मेहनत नहीं करते, जितनी की जानी चाहिए। आप यह तो जानते हैं कि मोती न तो पानी की सतह पर होते हैं और न ही बीच में। वे तो समुद्र के तल में होते हैं, और यदि किसी को मोती पाने है, तो उसे समुद्र के तल तक उतरना होगा। स्पष्ट है कि तल तक पहुँचने के लिए साहस चाहिए, शक्ति चाहिए और धैर्य भी चाहिए।जिनके अन्दर साहस, शक्ति और धैर्य होता है, वे अपने जीवन की थैली में सफलताओं के न जाने कितने मोती इकट्ठा कर लेते हैं। इन लोगों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि ये किसी भी घटना को किसी भी बात को उलटे तरीके से न लेकर एकदम सीधे तरीके से लेते हैं। ये वे लोग होते हैं, जिनकी तरफ यदि आप पत्थर फेकेंगे, तो वे उन पत्थरों को इकट्ठा करके उसकी बाड़ बना लेंगे और यह बाड़ उनकी जिन्दगी की रक्षा करने वाली बन जाएगी।महान गायक भीमसेन जोशी का नाम आप जानते ही हैं। हो सकता है कि आप उनकी जिन्दगी की उस कहानी को न जानते हों, जिसने उन्हें गायक बनाया। तो आइए, सबसे पहले इस बात को जाने।भीमसेन जोशी पहलवान थे। एक बार वे अपनी रोटी पर ज्यादा घी लगवाना चाहते थे। इस पर उनकी माँ ने उन्हें डाँट दिया। वे घर से भाग गए, और संगीत के किसी गुरू की तलाश में तानसेन की नगरी ग्वालियर पहुँचे। उनके पास ट्रेन के किराए के पैसे नहीं थे। तब उन्होंने ट्रेन में गाकर यात्रियों से पैसे इकट्ठे करके किराया भरा। उस समय उनकी उम्र केवल दस साल थी।आपने शायद सोचा भी नहीं होगा कि पहलवान आदमी गायक बन सकता है और वह भी इतना मधुर गायक। दस साल का वह बच्चा अपनी माँ की डाँट पर कुछ भी गलत कदम उठा सकता था। आखिर दस साल के बच्चे को समझ होती ही कितनी है? लेकिन उस पहलवान बच्चे ने जो सही कदम उठाया, उसी की बदौलत आज हमारे देश के पास इतना महान गायक मौजूद है।दूसरी अन्य जो बात ध्यान देने की है, वह है संकोच का न होना। उन्होंने ट्रेन में पैसे इकट्ठे करने के लिए गाने में कोई झिझक नहीं दिखाई। उन्होंने अनुभव किया होगा कि वे गायक भी बन सकते हैं। गायक बनने की जन्मजात ललक उनके अन्दर रही होगी। बस जरूरत थी, उस ललक को प्रशिक्षित करने की और वही ललक उन्हें ग्वालियर ले गई अन्यथा वे और भी कहीं जा सकते थे।तो देखा आपने कि अपनी माँ की डाँट को किस प्रकार सही रूप में उन्होंने ग्रहण किया।

हमारे आज के बच्चों और नौजवानों के लिए उसमें एक जबर्दस्त सन्देश छिपा हुआ है, जिसे हमें उन्हें बताना चाहिए।आज की बात अब यहीं तक। आपसे फिर भेंट होगी।


विजय अग्रवाल, मोबाइल - ०९४२५०१०२५४


नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था. डॉ॰ विजय अग्रवाल का यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है.

रविवार, 7 जून 2009

धन से पायें मोक्ष!


यह एक अच्छी बात है कि पिछले लगभग पन्द्रह सालों से भारतीय समाज में धनवान लोगों के प्रति लोगों की धारणा में बदलाव आया है और यह बदलाव अच्छी ही दिशा में है। इसमें कोई दो राय नहीं कि दार्शनिक कार्ल माक्र्स द्वारा स्थापित माक्र्सवादी सिद्धान्तों से प्रभावित लोगों ने पूँजी की जितनी तीखी आलोचना की, उतनी किसी और ने नहीं। शायद यह एक बहुत बड़ा कारण रहा कि इसके प्रभाव से भारतीय जनमानस हर धनी व्यक्ति को जोंक की तरह एक शोषक के रूप में देखने लगा। लेकिन मजेदार बात यह है कि भारतीय दार्शनिकों, नीतिशास्त्रियों, समाज नियामकों और यहाँ तक कि धर्मशास्त्रियों तक ने कभी भी धनवान लोगों को न तो पाप का कभी भागीदार ठहराया और न ही उन्हें शोषक के रूप में देखा। हाँ, उनका इस बात पर जरूर बहुत अधिक जोर रहा कि धन अर्जित करने की पवित्रता को हर हालत में बनाए रखा जाना चाहिए।
शासक मनु भारतीय समाज और आचार की संहिता लिखने वाले प्रथम विचारक हुए हैं। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध संहिता ‘‘मनुस्मृति’’ के पाँचवे अध्याय के श्लोक 109 में जो बात लिखी है, मुझे लगता है कि उसे केवल भारत में ही नहीं बल्कि दुनिया के सभी ऐसे लोगों को जानना चाहिए, जो धन अर्जन के प्रति थोड़े भी आकर्षित हैं। ऐसा करके वे न केवल समाज में अपनी प्रतिष्ठा ही मजबूत कर सकेंगे, बल्कि कभी-कभी देश में आने वाले भयानक आर्थिक संकटों से भी बच सकेंगे। मनु ने बारह प्रकार की पवित्रताओं का उल्लेख किया है। इसी संदर्भ में वे लिखते हैं कि ‘‘वास्तव में सभी प्रकार की पवित्रताओं में सबसे अधिक महत्त्व अर्थ की पवित्रता का है। जिसकी कमाई ईमानदारी की है, वह सचमुच और सदैव ही पवित्र है। और यदि धन के उपार्जन में पवित्रता नहीं, तो मिट्टी, जल आदि से स्वयं को शुद्ध करने का कोई लाभ नहीं है।’’
आमतौर पर जब लोग धन को पतन का कारण मानते हैं या फि जब ईसा मसीह यह कहते हैं कि ‘‘एक सुई की छेद से ऊँट का पार हो जाना तो सम्भव है, लेकिन एक धनी व्यक्ति का मेरे प्रभु के राज्य में प्रवेश करना सम्भव नहीं है,’’ तो हमें इसे सीधे-सीधे धन से न जोड़कर धन से पैदा होने वाली उन मनोवृत्तियों से जोड़ना चाहिए, जो उस धनी व्यक्ति के पतन का कारण बनती है। ईसा मसीह इसके पहले संदर्भ को प्रस्तुत करते हैं और ‘‘रामचरितमानस’’ की स्वर्ण मृग की कथा इसके दूसरे संदर्भ को।
ईसा मसीह ने अपने इस कथन में जिस ऊँट का उल्लेख किया है, वह वस्तुतः कोई पशु न होकर मनुष्य के अहम का प्रतीक है। सामान्यतया यह माना जाता है कि धनी व्यक्ति को अपने धन का अहंकार हो जाता है, जिसके कारण उसके सारे मानवीय मूल्य समाप्त हो जाते हैं। वह कोमल भावनाओं से वंचित हो जाता है। अर्थशास्त्री रिकार्डो ने इसी तरह के मनुष्य को ‘‘अर्थमानव’’ कहा है। जाहिर है कि जिसमें दंभ होगा, उसमें विवेक नहीं हो सकता औ जिसमें विवेक नहीं होगा, वह भला ईश्वर के विनम्र-द्वार में प्रवेश कैसे पा सकता है।
दूसरा संदर्भ लोभ से जुड़ा संदर्भ है और यह बहुत प्यारा और सुन्दर संदर्भ है, जिसकी मैं यहाँ थोड़ी विस्तार से चर्चा करना चाहूँगा।
भगवान श्रीराम यदि विष्णु के अवतार हैं, तो जाहिर है कि सीता भी लक्ष्मी की अवतार थीं। लक्ष्मी यानी कि स्वयं धन की देवी। सीता राजा की बेटी थीं और राजा की ही बहू बनकर आइ थी। लेकिन जब उन्हें अपने पति के लिए पत्नी धर्म निभाने की जरूरत पड़ी, तो अयोध्या के ऐश्वर्य को छोड़ने में उन्होंने क्षण भर भी नहीं लगाया।
महोपनिषद में कहा गया है कि ‘‘आप वही हो जाते हैं, जो आपकी गहरी आकांक्षा होती है।’’ हालांकि सीता राजमहल को छोड़कर तो आ गई थीं, लेकिन थीं तो आखिर में धन की ही देवी न। इसीलिए तो जब उन्हें स्वर्ण मृग दिखाई दिया, तो वे उसके प्रति आकर्षित होने से स्वयं को रोक नहीं सकीं। भगवान श्रीराम समझ गए कि यह ठीक नहीं है। धन का होना अलग बात है, लेकिन धन के प्रति आकर्षण का होना, लोभ का होना अलग बात है। आमतौर पर तो हमें यही लगता है कि उधर राम स्वर्ण मृग का शिकार करने गए और इधर रावण सीता का अपहरण करके अपने स्वर्ण महल में ले गया। मैं इसे इस रूप में लेता हूँ और मैं इस पर विश्वास भी करता हूँ कि हमारी हर गहरी आकांक्षा को ईश्वर पूरा करते हैं। चूँकि सीता में स्वर्ण के प्रति गहरी आकांक्षा थी, इसलिए भगवान श्रीराम ने सोचा कि पचास-सौ किलो का स्वर्ण मृग तो क्या, मैं तुम्हें ऐसी जगह पहुँवा देता हूँ, जहाँ यदि तुम चाहो तो सोने के ऐसे सैकड़ों स्वर्ण मृग बनवा सकती हो। इस प्रकार सीता पहुँच गईं सोने की नगरी श्रीलंका में।
लेकिन जीवन का सच स्वर्ण का सच नहीं है, श्रीराम को सीता को ही नहीं बल्कि पूरे भारतवर्ष को यह सन्देश भी देना था। यह भी बताना था कि ऐसा कभी नहीं समझा जाना चाहिए कि जीवन के सुख योग्यता के मापदण्ड और प्रेम निवेदनों में ही समाहित हैं। इसलिए तो स्वर्ण नगरी का शासक रावण जब सीता से पटरानी बन जाने के लिए प्रेम निवेदन करता है, तो सीता को उसके इस निवेदन को ठुकराने में एक क्षण भी नहीं लगता। यहाँ गौर करने की बात यह है कि हालांकि एक ओर तो सीता के मन में स्वर्ण मृग के प्रति आकर्षण था, किन्तु जब प्रेम जैसी भावना की बात आयी, तो उन्हें स्वर्ण का महल भी अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सका।
भगवान श्रीराम ने दूसरा काम यह किया कि सीता की आँखों के सामने ही उस स्वर्ण महल की निःस्सारता को ही सिद्ध करके दिखाया। सीता के सामने ही देखते-देखते क्षण भर में सोने का वह महल जलकर नष्ट हो गया। इससे भी बड़ी बात यह कि उस महल को जलकर नष्ट करने के लिए न तो किसी अग्निबाण जैसे मंत्र सिद्ध शक्ति की जरूरत पड़ी, और न ही किसी जादू-चमत्कार या माया की। सोने के इतने विशाल महल को जलाने का काम किया एक वानर ने यानी कि एक ऐसे जीव ने, जो मनुष्य से भी एक श्रेणी नीचे का जीव था। न केवल स्वर्ण नगरी ही जलकर भस्म हुई, बल्कि एक महीने के अन्दर-अन्दर उस नगरी का मालिक रावण भी नष्ट हो गया।
यहाँ यह बात कम महत्त्व की नहीं है कि भगवान श्रीराम का न तो ऐश्वर्य से विरोध है और न ही स्वर्ण की उस नगरी से। उनका विरोध है तो स्वर्ण के प्रति उस लोभ से जो दस-दस मस्तिष्क के होने के बावजूद व्यक्ति को इतना अविवेकी और इतना लोभी बना देता है कि प्रकृति की सारी शक्तियाँ उसके सामने निरीह हो जाती हैं। यह विरोध धन का नहीं बल्कि धन से उत्पन्न कुप्रवृत्तियों का विरोध है। विभीषण में वह कुप्रवृत्ति नहीं है, इसीलिए तो श्रीराम अपने राज्याभिषेक के बाद विभीषण को उसी लंका का राज्य सौंपते हैं, जिसे उनके दूत हनुमान ने जला दिया था। अन्यथा वे विभीषण को कह सकते थे कि ‘‘लंका को छोड़ तुम कहीं और अपनी राजधानी बनाना।’’ आखिर खुद के लिए भी तो उन्होंने चैदह वर्ष का वनवास काटने के बाद अयोध्या लौटकर राजा बन जाने के ही विकल्प को स्वीकार किया था। यदि धन और ऐश्वर्य से उन्हें इतना विरोध होता, तो उनके सामने अनेक विकल्प खुले थे तथा चौदह वर्ष का त्यागपूर्ण जीवन बीताने वाले अपने भाई भरत को पुरस्कार के रूप में अयोध्या का राज्य सौपकर स्वयं चित्रकूट के उस कामथ पर्वत पर जाकर संन्यासयुक्त जीवन व्यतीत करते, जहाँ उन्होंने अपने वनवास के तेरह वर्ष बिताए थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया तो सिर्फ इसलिए क्योंकि वे इस बात को जानते थे कि धन का विरोध करने मात्र से धर्म नहीं मिलता है। धर्म तो मिलता है धन के पवित्रतापूर्ण अर्जन से और फिर मोक्ष प्राप्त होता है उस धन के धर्मपूर्ण उपयोग से।
यदि आपको मेरी बात पर विश्वास न हो, तो आप पूरे मध्यकाल के सन्तों की वाणियों को उठाकर देख लें। कबीरदास बहुत विद्रोही संत थे। मुझे वे सच्चे आध्यात्मिक महापुरूष लगते हैं। वे विद्रोही संत थे। उन्होंने धर्म के उन सभी रूपों का विरोध किया, जो पाखंड से जुड़े हुए थे। लेकिन उन्होंने कभी भी सीधे-सीधे धन का विरोध नहीं किया। न ही उन्होंने कभी विरोध किया धनी लोगों का। यदि पाखंडी गरीब भी है, तो वह पापी है और यदि धनी व्यक्ति सरल, सहज है, तो वह इसलिए पापी नहीं है, क्योंकि वह धनी है। कबीर स्वयं गरीब रहे और इस लिहाज से यदि वे चाहते तो ईष्र्या से भरकर धनी लोगों का सीधे-सीधे विरोध कर सकते थे। लेकिन वे जानते थे कि ऐसा करना कोई बड़ी समझदारी की बात नहीं होगी। यह बात अलग है कि मनुष्य के अधःपतन के कई कारणों में से एक कारण धन भी होता है, लेकिन वे यह कभी नहीं माने कि जिसके पास धन होगा, उसका अधःपतन निश्चित ही है।
वर्तमान युग में मैं कुछ ऐसे धनी लोगों के नाम यहाँ लेना चाहूँगा, जिन्होंने सही अर्थों में धन के प्रति जो भारतीय अवधारणा रही है, उस रास्ते पर चलकर न केवल धन ही अर्जित किया है, बल्कि प्रतिष्ठा भी अर्जित की है और एक प्रकार से धर्म को आध्यात्मिक जीवन का माध्यम भी बनाया है। जमशेदजी टाटा, नारायण मूर्ति तथा जान बफेट जैसे धनवान मुझे इसी पंक्ति में खड़े मालूम पड़ते हैं। मुझे लगता है कि इनके मार्ग का अनुसरण किया जाना न केवल धनी वर्ग के ही हित में होगा, बल्कि सम्पूर्ण विश्व के हित में होगा।


नोट - यह आलेख मनी मंत्र में प्रकाशित हो चुका है |

शनिवार, 6 जून 2009

अजनबियों से भी अपनत्व से पेश आएं

मेरे लिए ऑटो से आने या जाने का मतलब होता था ऑटो वाले के साथ चिकचिक, बहसबाजी और झगड़े का होना। उस समय तो मेरी जान ही सूख गई, जब मुझे लगातार दस दिनों के लिए संसद मार्ग से एशियाड विलेज के लिए सुबह जाना था और रात में लौटना था। इसका मतलब था दिन की शुरुआत चिकचिक से होना और दिन की समाप्ति बहसबाजी में होना। यह बहुत दुखद था और असहनीय भी। मैंने मन ही मन ठाना कि इस बार मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। अब मैं ऑटो को रोकता और उससे ‘एशियाड विलेज’ चलने को कहकर उसमें बैठ जाता। बैठते ही मैं उससे पूछता कि ‘भइया कहां के रहने वाले हो?’ उसके उत्तर के साथ ही बातचीत का सिलसिला चल निकलता कि वह दिल्ली क्यों आया, उसके बच्चे कितने हैं और क्या करते हैं आदि-आदि। यह सिलसिला गंतव्य स्थल पहुंचने पर ही रुकता। ऐसा एक बार नहीं, बल्कि कई बार हुआ। मेरी तरकीब ने जादुई तरीके से अपना काम किया था और मैं जीत गया था।
इससे मेरी यह धारणा पहले से भी अधिक मजबूत हो गई कि आज हर आदमी को अपनत्व की तलाश है। हाथ मिलाने वाले तो बहुत से हैं, लेकिन कंधे पर हौले से हाथ रखने वाला कोई नहीं है। पुचकार और दुलार की भाषा तो गाय और कुत्ते तक जानते हैं, फिर इंसान को भला कैसे खारिज किया जा सकता है, चाहे वह कितना ही अनपढ़ क्यों न हो।
किसी की पीठ पर रखे गए हाथ के स्पर्श का जादू हजारों उपदेशों तथा सैकड़ों आदेशों से ज्यादा कारगर होता है और इसके लिए हमें कुछ खर्च भी नहीं करना पड़ता। हमें केवल करना पड़ता है और वह भी थोड़ा सा। जो लोग जिंदगी में बहुत आगे निकल सके और जिन्होंने लोगों को अपने पीछे चलने को मजबूर किया, वे आदमी के अंतस को छूने के इस रहस्य को अच्छी तरह से जानते थे। इसे मैंने भी जान लिया है, आप भी जानने की कोशिश करें।

नोट - यह लेख बुधवार, 26 मार्च, 2008 को दैनिक भास्कर के 'विकास मंत्र' स्तम्भ में प्रकाशित हुआ था.

शुक्रवार, 5 जून 2009

अपने काम को बनाएं सेवा

ठंड के दिनों में किसी को सुबह पांच बजे स्टेशन आने के लिए कहना एक प्रकार से उसके साथ ज्यादती ही कहा जाएगा, जो मैंने किया। स्वाभाविक था कि इस काम के लिए मैंने उन्हें सच्च आभार प्रकट किया। मेरे इस आभार के बदले में उन्होंने जो कहा, ईमानदारी से बता रहा हूं कि वह मुझे अंदर तक छू गया।
उन्होंने कहा, ‘सर, काम तो हम रोज ही करते हैं, लेकिन सेवा करने का मौका कभी-कभार ही मिलता है।’ आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि ये सज्जन मेरे अधीन काम कर चुके थे। ‘सेवा’ शब्द पानी की ठंडी धार की तरह मेरे कानों से होते हुए नाभि तक उतर गया, और मैं अभिभूत हो उठा।
सेवा भी आखिर में होता तो काम ही है। लेकिन दोनों में जो बहुत महीन और गहरा अंतर है, वह है - बोध का। यह फर्क भावना का फर्क है, जुड़ाव का फर्क है। सेवा में जुड़ाव जरूरी है। काम में तटस्थता चलेगी, लेकिन सेवा में नहीं। इस जुड़ाव का अनुभव हम तब करते हैं, जब हम मन से बनाया हुआ भोजन करते हैं। फामरूले तो सब वही रहते हैं, लेकिन मन का, जुड़ाव का हल्का-सा छौंक लगाते ही भोजन का स्वाद एकदम बदल जाता है।
यही काम के साथ भी होता है। काम और मन का रिश्ता कायम होते ही न केवल काम की गुणवत्ता में सुधार आ जाता है, बल्कि उसके पूरा होने का समय भी कम हो जाता है। और इन सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह कि काम करने में आनंद आता है, सो अलग। क्या ‘आनंद’ से बड़ा होता है - प्रमोशन, और क्या इससे भी बड़ा होता है - कोई पुरस्कार?
नोट - यह लेख ११, फरवरी २००९ को दैनिक भास्कर के 'विकास मंत्र' स्तम्भ में प्रकाशित हुआ था.

गुरुवार, 4 जून 2009

अवगुणों को छोड़ गुणों पर ध्यान दें


आठ साल तक उनका प्रेम प्रसंग चला, और जब दोनों को लगने लगा कि दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते, तो जैसा कि ऐसे मामलों में होता है, दोनों ने घर वालों से विद्रोह कर शादी कर ली। शादी के चार साल बाद आज वही जोड़ी मेरे सामने बैठकर कह रही थी कि ‘हम एक साथ नहीं रह सकते।’ जाहिर है कि दोनों के पास शिकायतों के अपने-अपने और सही-गलत पुलिंदे थे, जिन्हें मेरे सामने पेश करने में उनमें होड़ लगी थी।
तंग आकर मैंने पहले लड़की से पूछा कि ‘आखिर, इस लड़के में तुमने ऐसा क्या देखा कि इसके साथ पूरी जिंदगी गुजारने का फैसला कर बैठी?’ उसने जवाब दिया कि ‘वह इंटेलीजेंट था।’ मैंने पूछा कि क्या तुम्हारा यह अनुमान बाद में गलत निकला?
वह थोड़ी घबराई, फिर उसने पूरे विश्वास के साथ कहा ‘नहीं, वह आज भी इंटेलीजेंट है।’ बस, उसके इस उत्तर ने मेरे हाथ में ब्रह्मास्त्र दे दिया और मैंने उसे चलाने में तनिक भी देरी नहीं की कि ‘जब वह आधार, वह नींव मौजूद है, जिस पर तुम्हारा प्रेम खड़ा था, तो अब प्रेम क्यों नहीं है।’
वे दोनों निरुत्तर हो गए। कुछ दिनों बाद लड़की ने अपने जन्मदिन पर फोन करके इस बात के लिए आशीर्वाद मांगा कि ‘हम दोनों में प्रेम और समझदारी यूं ही बनी रहे।’ दोस्तो, सभी में दोनों होते हैं। कुछ अच्छा-कुछ बुरा। जब तक ध्यान अच्छे पर रहता है, संबंध रहते हैं। जब ध्यान अच्छे से हटकर बुरे पर चला जाता है, संबंध चटकने लगते हैं। इस घटना के बाद मेरे जेहन में यह बात बैठ गई कि यदि किसी की एक कमी, एक गलत घटना हमें उससे हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर सकती है तो कोई एक गुण, एक अच्छी घटना हमें उससे हमेशा के लिए जोड़े भी रख सकती है।

बुधवार, 3 जून 2009

इमोशनल एनर्जी का सच

मैं बेहद तनाव में था और रात भर चिंता के कारण सो नहीं पाया था। रात में नींद आनी बहुत जरूरी थी, क्योंकि सुबह नौ बजे मुझे देश की एकमात्र नेशनल जूडिशियल एकेडमी में समय प्रबंधन पर दो घंटे बोलना था। दरअसल मेरे तनाव का कारण यह था कि मुझे अंग्रेजी में बोलना था, वह भी देश भर से आए हुए जजों के सामने। थोड़ी बहुत अंग्रेजी पढ़-बोल लेना अलग बात है, किंतु धाराप्रवाह बोलना अलग बात थी।
फिर भी मैंने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया था कि ‘आखिर कब तक यूं ही डरता रहूंगा।’ सुबह आठ बजे मेरी पत्नी प्रीति का फोन आया ‘शुभकामनाएं आपके लेक्चर के लिए।’ ये शब्द सुनते ही मैं जोश से भर गया। मुझे लगा मानो ये किसी फरिश्ते के शब्द हैं, जो ऊर्जा बनकर मेरी देह और मेरी चेतना में व्याप्त हो गए हैं। मेरा गला भर गया था और मैं ‘धन्यवाद’ से अधिक कुछ जवाब न दे सका। उसी क्षण, तत्काल मैं निर्भय हो गया। मुझमें एक विलक्षण आत्मविश्वास आ गया और मैं डेढ़ घंटे की बजाय सवा दो घंटे तक लगातार बोलता गया और मुझे ध्यान से सुना गया। तार्किक रूप से बता पाना मुमकिन नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ। लेकिन सच यही है कि ‘ऐसा हुआ, और ऐसा होता है।’ हम सभी के अंदर एक इमोशनल एनर्जी है, जिसकी शक्ति अद्भुत होती है। यह छिपी हुई रहती है, ठीक वैसे ही जैसे पत्थर में मौजूद असंख्य चिंगारियां। जब आपके अपने बहुत गहरे बैठा हुआ कोई उसे रगड़ या कुरेद देता है तो चौंधिया देने वाले प्रकाश का अदम्य फव्वारा अचानक फूट पड़ता है। और देखते ही देखते सारा नजारा रोशनी में नहा उठता है, शायद यही हुआ होगा। हमें इसकी खोज करनी ही चाहिए।
नोट - यह लेख ०२ अप्रैल २००९ को दैनिक भास्कर के 'विकास मंत्र' स्तम्भ में प्रकाशित हुआ था.

मंगलवार, 2 जून 2009

खुद बन जाएँ दूसरों के लिए रोल मॉडल

जिंदगी में हम क्या बनते हैं, इसका इस बात से बहुत गहरा ताल्लुक होता है कि हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं। और हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं, इसका गहरा ताल्लुक इस बात से होता है कि हमने अपनी जिंदगी के लिए किसे अपना रोल मॉडल बनाया है। इसी सिद्धांत को ध्यान में रखकर मैंने कुछ समय पहले मध्यप्रदेश के ऐसे विद्यार्थियों पर एक शोध कार्य किया, जिनमें से ज्यादातर की पृष्ठभूमि गाँव और कस्बों की थी। उनसे जो दो महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे गए थे, उनमें से पहला प्रश्न यह था कि वे क्या बनना चाहते हैं तथा दूसरा प्रश्न था कि वे किसे अपना आदर्श मानते हैं। पहले प्रश्न के जवाब में ज्यादातर युवाओं ने अधिकारी बनने की बात लिखी थी तो किसी ने बड़ा अधिकारी बनने की बात। मैं समझता हूँ कि ऐसा उन्होंने इसलिए लिखा था, क्योंकि हमारी कस्बाई मानसिकता अभी भी सामंतवादी सोच से उबर नहीं पाई है। सरकारी अधिकारी का दबदबा हमारे दिमाग में अभी तक ठीक उसी प्रकार बना हुआ है, जिस प्रकार से हम भारतीयों के दिमाग में अँगरेजी भाषा का दबदबा बना हुआ है।
मेरे दूसरे प्रश्न के उत्तर में अधिकांश ने अपना आदर्श अपने पिता को बताया था। उसमें एक प्रश्न यह था कि आपके पिता क्या करते हैं। इनमें से ज्यादातर के पिता किसान थे या छोटे व्यापारी थे, मजदूर थे या दफ्तरों में काम करने वाले छोटे कर्मचारी थे। यहाँ मुझे गलत बिलकुल न समझें। मेरे लिए मजदूर, किसान और छोटे कर्मचारी उतने ही सम्माननीय हैं, जितना सम्माननीय कोई भी बड़ा अधिकारी, मैनेजर और उद्योगपति हो सकता है। फिर जब बात पिता की आती है, तब न तो वह मजदूर रह जाता है और न मालिक। पिता तो केवल पिता ही होताहै। यहाँ हम सबके लिए सोचने और समझने की बात यह है कि हम जो बनना चाह रहे हैं , और वह बनने के लिए हमने जो अपना रोल मॉडल चुना है, क्या वे दोनों एक-दूसरे से मैच करते हैं? देखिए, बात सीधी-सी है कि यदि आपको हिन्दुस्तान से अमेरिका जाना है तो दुनिया की दाहिनी दिशा की ओर यात्रा करनी होगी। ऐसा नहीं हो सकता कि आप पहुँचना चाहते हैं चन्द्रमा पर और उसके लिए छलाँग लगा दें हिन्द महासागर में। यदि आपने मंजिल का निर्धारण कर लिया है और आपकी दिशा सही नहीं है तो मैं यही कहूँगा कि आपकी मंजिल भी सही नहीं है। या तो मंजिल के अनुसार दिशा को चुनिए या फिर यदि आपने दिशा चुन ली है, तो वह जहाँ पहुँचा दे उसे ही अपनी मंजिल समझिए। दरअसल होता यह है कि हमारे रोल मॉडल हमारे लिए 'लाइट हाउस' का काम नहीं करते। वे न तो उनमें ईंधन भरते हैं और न ही उनके लिए आश्रय स्थल बनते हैं। वे तो केवल गहरी अँधेरी रात में अपनी टिमटिमाहट से उन्हें यह बताते रहते हैं कि सही रास्ता उधर है, ताकि उस सुनसान सागर में वे स्टीमर भटक न जाएँ।

यह पक्का जानिए कि यदि लाइट हाउस की तारों की तरह चमचमाने वाली वह हल्की-सी रोशनी किसी वजह से बुझ जाए, तो स्टीमर अपने गंतव्य तक पहुँच नहीं सकेंगे। बस, मुझे रोल मॉडल की भूमिका इतनी ही लगती है। हमारा रोल मॉडल हमारे लिए चुनौती बनकर हमारे आगे-आगे चलता रहता है और पुकार-पुकार कर कहता रहता है कि 'मुझे छुओ, मुझे पकड़ो'। हम दौड़कर अपना हाथ बढ़ाते हैं कि इतने में वह थोड़ा-सा और आगे निकल जाता है। वह फिर से पहली वाली आवाज लगाता है और हम फिर से उसे पकड़ने की कोशिश करते हैं। ऐसा करते-करते ही एक ऐसी स्थिति आती है कि वह रोल मॉडल हमें अपने आगोश में भरकर अपने कंधे पर बिठाकर हमारी जीत की घोषणा कर देता है। मित्रो, मेरे कहने का मतलब केवल इतना ही है कि अपनी जिंदगी के लिए एक रोल मॉडल चुनिए और याद रखिए वह रोल मॉडल आदर्श और चुनौतियों से भरा मॉडल हो। यदि आपका मॉडल आपके सपनों के अनुसार हुआ तो एक दिन ऐसा आएगा, जब आप खुद दूसरों के लिए रोल मॉडल बन जाएँगे।

जिंदगी में हम क्या बनते हैं, इसका इस बात से बहुत गहरा ताल्लुक होता है कि हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं। और हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं, इसका गहरा ताल्लुक इस बात से होता है कि हमने अपनी जिंदगी के लिए किसे अपना रोल मॉडल बनाया है।

सोमवार, 1 जून 2009

ऋण की नैतिकता

‘महाभारत’ की कथा में एक प्रसंग है यक्ष प्रश्न का। इसका संदर्भ यह है कि अपने वनवासकाल की समाप्ति पर पाण्डवों को वन में प्यास लगती है। एक सरोवर पर नकुल पानी लेने जाते हैं। वे जैसे ही सरोवर में उतरते हैं, उन्हें एक आवाज़ सुनाई देती है कि ‘‘माद्रीनन्दन! दुस्साहस न करो। यह सरोवर मेरे अधीन है। पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, फिर पानी पीओ।’’ नकुल  प्यास से त्रस्त था। प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही पानी पी लिया, और पीते ही ढ़ेर हो गया। सभी पाण्डवपुत्रों के साथ यही हुआ। अंत में जब युधिष्ठिर गये, तब उन्होंने सरोवर के उस यक्ष के सभी प्रश्नों के सही-सही उत्तर देकर पानी भी पीया और अपने मृत भाइयों को जीवित भी किया।
यक्ष द्वारा पूछे गए कई प्रश्नों में अंतिम प्रश्न था-सुखी कौन है? आश्चर्य क्या है? मार्ग क्या है? और वार्ता क्या है?
सुखी कौन है? के प्रश्न के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा-जिस पुरुष पर ऋण न हो, जो परदेश में न हो, और अपने घर शाक-पात का पका हुआ भोजन करने वाला संतोषी व्यक्ति सुखी है।
मुझे लगता है कि अमेरीका से शुरु होकर यूरोप होते हुए धीरे-धीरे पूरी दुनिया पर पसर जाने वाली मन्दी के इस दौर में यक्ष प्रश्न के इस संदर्भ का याद आना स्वाभाविक ही है। अर्थशास्त्री और वित्त विशेषज्ञ इस मंदी के चाहे कितने-कितने भी कारण क्यों न गिनाते रहे, लेकिन इन सभी कारणों का भी जो कारण है, वह बेतहाशा और अविवेकपूर्ण तरीके से ऋण लेते चले जाना और देते चले जाना ही है। मजेदार बात यह है कि यह ऋण अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए लिया गया था, जबकि महाभारतकार का कहना ठीक इसके विपरीत है कि जिसने ऋण नहीं लिया, वह सुखी है।
भारतीय लोकमानस ने ऋण के बारे में बहुत ही सुन्दर, बहुत ही टिकाऊ, बहुत ही व्यावहारिक और नैतिक दृष्टि से बहुत ही उम्दा व्यवस्था की हुई है। उसने ऋण को, कर्ज को दो भागों में बाँटा है। पहला भाग सीधे-सीधे धन के लेन से जुड़ा हुआ है। लेकिन दूसरा भाग कहीं इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, जो कृतज्ञता से संबंधित है। हमारे लिए यदि किसी ने कुछ किया है, फिर चाहे उसने यह अपने दायित्वों को निभाने के लिए ही क्यों न किया हो, उसने हमें कर्जदार बना दिया है। इसलिए तो हमारे यहाँ मातृ-पितृ ऋण, गुरु ऋण, देव ऋण, और पितृऋण जैसे अनेक ऋणों की बात की जाती है। उन्होंने हमारे लिए जो कुछ भी किया है, उसके लिए हम उनके प्रति कृतज्ञ रहते हैं, आभारी रहते हैं, और उनकी सेवा करके, उनका सम्मान करके और उनके काम आकर इस ऋण से मुक्त होने की कोशिश करते हैं।
इससे भी कहीं बड़ी बात यह है कि पुनर्जन्म के साथ केवल अच्छे और बुरे कर्म को ही नहीं जोड़ा गया है, बल्कि कर्ज को भी जोड़ा गया है। इसके अनुसार कर्ज लेना बुरा नहीं है, लेकिन कर्ज लेकर उसे न देना बहुत ही बुरा है। यह एक प्रकार का दुष्कर्म ही नहीं बल्कि एक पाप है। यह एक ऐसा पाप है, जिसका फल अगले जन्म में भुगतना पड़ेगा। और इसे इस तरह भुगतना पड़ेगा कि धन वसूलने वाला किसी न किसी रूप में अपना ऋण वसूलही लेगा। यदि किसी का छोटा या जवान बेटा काफी इलाज करने के बाद चल बसता है, तो यह कहने वालों की कमी नहीं है कि ‘‘पिता ने उससे पिछले जन्म में कुछ कर्ज लिया होगा।’’ यहाँ तक कि किसी लेन देन के मामले में यदि एक आदमी दूसरे आदमी की देनदारी से मुकर जाता है, तो पहले आदमी को यह सोचकर संतोष कर लेने में अधिक समय नहीं लगता कि ‘‘हो सकता है कि यह मुझसे पिछले जन्म का कर्ज वसूल रहा हो।’’
मुझे नहीं मालूम कि इस तरह के विश्वास का आधार कितना ठोस है, या कि यह सोच कितनी वैज्ञानिक है। लेकिन मुझे इतना जरुर मालूम है कि जनमानस में रचा-बसा यह भाव व्यावहारिक बहुत अधिक है। यह इतना व्यावहारिक है कि इस चिंतन ने भारतीय व्यापार और वाणिज्य को न केवल सरल, सहज और सुगम ही बनाया है, बल्कि इसने समाज में नैतिकता के उच्चतर मापदण्ड भी स्थापित किए हैं। बात बहुत पुरानी नहीं है। पिछली शताब्दी के छठे-सातवें दशक तक तो स्थिति यह थी कि लाखों के सौदे बिना लिखा-पढ़ी के यूं ही मुँहजुबानी हो जाया करते थे। यदि किसी ने दस्तखत कराने के लिए कोई कागज बढ़ा दिया, तो इसे अपने प्रति अविश्वास का प्रस्ताव मानते हुए लोग नाराज हो जाते थे, और बात यहाँ तक बढ़ जाया करती थी कि सौदे को ही निरस्त करना पड़ता था। मैं स्वयं ऐसी स्थितियों का गवाह रहा हूँ। और मुझे फिलहाल ऐसी कोई भी एक घटना याद नहीं आ रही है, जिसे मैं विश्वासघात या अविश्वास के रूप में प्रस्तुत कर सकूँ। लोग कर्ज देकर निश्चिंत रहते थे कि वापस मिल जाएगा। कर्ज लेने वालों का पूरा कुनबा इस बात की चिन्ता करता रहता था कि ऋण लौटाना है। और इसे लौटाने का क्रम, यदि जरुरी हुआ, तो पुस्त-दर-पुस्त चलता रहता था।
गौर करने की बात यह है कि इतने सारे धार्मिक, नैतिक और सामाजिक घेराबन्दी के बावजूद भारतीय समाज ने कभी भी ऋणग्रस्तता को न तो महिमामंडित किया, और न ही इसे प्रेरित किया। हालांकि आज से लगभग सोलह सौ साल पहले इसी देश में चार्वाक जैसे दार्शनिक हुए, जिन्होंने घोर भौतिकवादिता का समर्थन करते हुए ‘‘ऋण लेकर घी पीने’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। कुछ लोग उनके इस विचार की ओर आकर्षित भी हुए कि ‘‘जब तक जीयो, सुख से जीयो। उधार लेकर घी पीयो।’’ लेकिन यह दर्शन चल नहीं पाया, बावजूद इसके कि इसी देश ने चार्वाक की बौद्धिकता का लोहा मानते हुए उन्हें ऋषि का दर्जा दिया।
इसके स्थान पर ऋण के बारे में जन-जन की चेतना में ‘‘जितनी चादर हो, उतना पैर पसारो’’ के मुहावरे को स्थापित किया गया। ऐश्वर्यशाली ऐसे भगवान से, जो सबकी मनोकामना को पूरा करने वाले हैं, जब उनसे भी माँगा गया, तो यही माँगा गया कि -
साँई इतना दीजिए, जामें कुटुम समाये।
मैं भी भूखा ना रहूँ,, साधु न भूखा जाये।।
जहाँ चाहत ही इतनी सी होगी वहाँ ऋण लेने, इसके लिए उकसाने और उसका गुणगान करने की जरुरत ही नहीं रह जाती है।
मैं इन भारतीय सन्दर्भों की चर्चा इस विशेष आशय के कारण कर रहा हूँ कि हमने हमेशा केवल ऋण को ही नहीं, बल्कि उससे भी कहीं अधिक ऋण की नैतिकता को महत्व दिया है। इस नैतिकता की एक जबर्दस्त सामाजिक और आर्थिक भूमिका होती है। सामाजिक भूमिका यह कि इसके कारण समाज में विश्वास और समरसता का माहौल बना रहता है। आर्थिक भूमिका यह कि धन का प्रवाह अबाधित तरीके से चलता रहता है। जैसे की ऋण से इस नैतिक संदर्भ को हटा लिया जाता है, चारों ओर अविश्वास, अव्यवस्था और आर्थिक जटिलताओं का दौर शुरु हो जाता है, जो आज हमें देखने को मिल रहा है। दुर्भाग्य यह है कि यह स्थिति पश्चिम में ही नहीं, बल्कि हमारे यहाँ भी तेजी से आती जा रही है। यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया, और ऋण को कानून के साथ-साथ नैतिकता एवं सामाजिक दबावों के साथ नहीं जोड़ा गया, तो जिस मंदी का दौर अभी चालीस सालों में आया है, उसके आने की फ्रिक्वेन्सी काफी तेज़ हो सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए रेग्यूलेटरी एजेन्सियों की एक सीमा होती है, क्योंकि वे उसी समाज के व्यक्तियों द्वारा लाए जाते हैं, जो समाज इन एजेन्सियों को कमजोर करने में लगा रहता है। लेकिन नैतिकता न तो कमज़ोर होती है, और न ही सीमा में कैद। वह सार्वकालिक होती है, और सार्वभौमिक भी।

(विजय अग्रवाल)
नोट - यह लेख मनी मंत्र पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.

रविवार, 31 मई 2009

जिंदगी के रास्ते कभी खत्म नहीं होते!


कुछ विचित्र सी खबरें पढ़ने को मिलती हैं। खबर यह होती है कि अमूक विद्यार्थी ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे अच्छी अँगरेजी नहीं आती थी। यह भी खबर पढ़ने को मिलती है कि उसने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसकी प्रेमिका ने उसे ठुकरा दिया या प्रेमी से उसकी शादी नहीं हो सकी। यह पढ़कर न केवल गहरा दुःख होता है, बल्कि धक्का सा पहुँचता है।
दुःख इसलिए होता है कि एक ऐसा जीवन जिसे इस धरती ने अपनी गोद में 18-20 साल रखा। जिसे प्रकृति ने अपनी हवा, पानी और रोशनी से पाला-पोसा, वह यूँ ही एक मिनट में इन सबको ठुकराकर इतना अधिक निर्दयी बनाकर एक मिनट में चलता बना। वह कुछ बनकर इस धरती कोऔर बेहतर बनाने में जो अपना योगदान दे सकता था, उस संभावना को उसने अपने जीवन की समाप्ति के साथ ही समाप्त कर दिया।
धक्का मुझे इसलिए लगता है कि मैं सोचता हूँ कि क्या इतने अमूल्य, इतने महत्वपूर्ण और इतने असाधारण जीवन को ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिए खत्म कर दिया जाना चाहिए? कम से कम मैं तो इससे इत्तफाक नहीं रख पाता। हो सकता है कि मेरी इस बात से मेरे युवा साथी सहमत न हों, क्योंकि उन्हें प्रेम की सफलता और असफलता जिंदगी की एक बहुत बड़ी बात मालूम पड़ती है। इसलिए वे इसके लिए मरने और मारने की बात को एक प्रकार से अपने अस्तित्व से ही जोड़कर देखने लगते हैं।
उन्हें लगता है कि यदि प्रेम ही नहीं रह गया तो जिंदगी के रहने का अर्थ ही क्या है।
और समाज में ऐसे भावुक युवा प्रेमियों को समझा पाना इतना आसान भी नहीं होता। ऐसे कई लोगों से मेरा साबका पड़ा है और मैंने समझाने की इस परेशानी को झेला भी है। मैंने पाया है कि उनके सारे सच के केंद्र में उनकी अतिरिक्त भावुकता होती है।
यदि उनकी इस भावुकता पर तार्किकता की थोड़ी सी भी लगाम कसी जा सके तो ऐसी न जाने कितनी जिंदगियों को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। यहाँ तक कि बहुत सी ऐसी भी जिंदगियाँ होती हैं, जो नष्ट तो नहीं होती, लेकिन अपने उस खोए हुए प्यार को अपने दिल में दबाए हुए अपने लिए लगातार बर्बादी के रास्ते तलाशती रहती है। ये जितना बेहतर जीवन जी सकते थे, अपने-आपको उस बेहतर जीवन से वंचित कर लेते हैं।


मित्रों सातवें दशक के एक बहुत खूबसूरत फिल्मी गीत की पंक्तियाँ हैं-


छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए

यह मुनासिब नहीं जिंदगी के लिए।

प्यार से भी जरूरी कई काम हैं

प्यार सब कुछ नहीं जिंदगी के लिए।


प्यार बहुत कुछ तो हो सकता है, लेकिन सब कुछ कतई नहीं। और यदि सच पूछिए तो प्रेम केवल तभी तक प्रेम रहता है, जब तक कि वह आपको मिलता नहीं। जैसे ही प्रेम मिल जाता है, यानी कि प्रेमिका पत्नी और प्रेमी पति बन जाता है, जैसे ही प्रेम उड़न-छू हो जाता है। स्पष्ट है कि जब प्रेमी प्रेमी नहीं रहा और प्रेमिका प्रेमिका नहीं रही, तो फिर भला प्रेम ही प्रेम कैसे रह सकता है। मैं जानता हूँ कि मेरी इस बात पर सौ प्रश प्रेम-प्रेमिका भरोसा नहीं करेंगे, क्योंकि इस पर भरोसा करने के लिए अनुभव की जरूरत होती है और यदि एक बार अनुभ वहो जाए तो फिर आप भरोसा करें या न करें उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
इसलिए फिलहाल तो मैं अपने युवा मित्रों से यही कह सकता हूँ कि कृपया यकीन करें। साथ ही एक बात और। जिंदगी के किसी भी क्षेत्र की सफलता का परिणाम आप अपने जीवन के अंत में क्यों ढ़ूँढते हैं? आपको लगता होगा कि यह जिंदगी आपकी है और आप इसके साथ जैसा चाहें, बर्ताव कर सकते हैं।
यदि आप ऐसा सोचते हैं कि जो गलत सोचते हैं, क्योंकि यह जिंदगी आपकी होकर भी आपकी नहीं है। यह ईश्वर और प्रकृति के द्वारा आपके पास रखी गई एक धरोहर मात्र है। आप इसके केवल रखवाले भर हैं। जिस तरह एक चौकीदार उस घर का मालिक नहीं हो जाता जिसकी वह रखवाली कर रहा है, उसी तरह आप भी अपने शरीर के मालिक नहीं है, जिसको आप पाल-पोस रहे हैं। आपके माँ-बाप ने इसको तैयार किया है और पूरी प्रकृति और पूरा समाज मिलकर इसके अस्तित्व को बनाए रखने में इसकी मदद कर रहा है। इसलिए किसी व्यक्ति को यह अधिकारी नहीं होता कि वह ईश्वर की इस धरोहर को नष्ट कर दे।
मित्रों जीवन में कभी ऐसा नहीं होता कि रास्ते खत्म हो जाते हैं। रास्ते खत्म नहीं होते; हाँ, वे मुड़ सकते हैं। बड़े रास्ते छोटी पगडंडियाँ बन सकती हैं। लेकिन वे मरती कभी नहीं। जिंदगी हमेशा संभावनाओं से भरा हुआ एक विशाल कर्मक्षेत्र होता है जहाँ एक दरवाजा बंद होने पर सौ दरवाजे खुलने की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
आपको करना केवल यह होता है कि अपने आँखों के आँसुओं को पोंछकर आँखें उठाकर आशा भरी नजरों से क्षितिज को निहारना होता है और आपके देखते ही देखते न जाने कितने दरवाजे उन्मुक्त हो जाते हैं। इसलिए उदास, निराश और हताश होने की कोई जरूरत ही नहीं होती।

शनिवार, 30 मई 2009

सच्चा प्रेम

‘‘मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूँ।’’
‘‘लेकिन मैं तो तुमसे नहीं करता।’’
‘‘इससे क्या, लेकिन मैं तो तुमसे करती हूँ।’’
‘‘तुम नहीं जानती मुझे। सच तो यह है कि मैं तुमसे घृणा करता हूँ।’’
‘‘शायद इसीलिए मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, क्योंकि बाकी सभी मुझसे प्रेम करते हैं।
एक तुम ही अलग हो, जो मुझसे घृणा करते हो।’’
कहते हैं कि दोनों ने अपने इस रिश्ते को ताउम्र निभाया।
विजय अग्रवाल

शुक्रवार, 29 मई 2009

मुस्कान के महत्व को समझें


इंग्लैंड की होने के नाते वह गोरी-चिट्टी तो थीं ही, छरहरी भी थीं। कद उनका मझोला था। उनकी आंखों में गजब का आकर्षण था। ये वह महिला थीं, जिनकी खूबसूरती और विद्रोही किस्म के किस्सों की डुगडुगी इंग्लैंड में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में बज रही थी और मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से था, जिन्हें उनसे हाथ मिलाने का अवसर मिला था।
सच कहूं तो वह मुझे सुंदर तो लगीं, लेकिन इतनी नहीं कि दुनिया उन पर मोहित हो जाए। आखिर उनमें कोई तो ऐसी बात थी, जो दुनिया उनकी दीवानी थी। जो बात मैंने महसूस की, वह थी उनके चेहरे पर हमेशा खिली रहने वाली मुस्कान। उनके होंठ ही नहीं, बल्कि उनकी आंखें, उनका चेहरा और यहां तक कि उनकी पूरी देह मुस्कराती हुई नजर आती थी।
मैं यहां जिस महिला की चर्चा कर रहा हूं, वह थीं प्रिंसेस डायना, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। मोनालिसा ने अगर यह सिद्ध किया कि मुस्कान इस दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य है तो प्रिंसेज डायना ने सिद्ध किया कि मुस्कान दुनिया का सबसे बड़ा सौंदर्य। भारत में मधुबाला, राजीव गांधी और अक्षय खन्ना जैसी शख्सियतों ने अपनी अनूठी मुस्कान के जरिए इस संदेश को आगे बढ़ाया है।
मुस्कराहट इस धरती पर ईश्वर द्वारा किए गए हस्ताक्षर हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर हमारे अंदर मौजूद है। इसे लाएं क्योंकि यह है। इसे बांटें, क्योंकि यह बांटने से बढ़ती है। यह दूसरों को हर क्षण दिया जाने वाला एक ऐसा अनूठा उपहार है, जिसके लिए कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता, जबकि इसके बदले में मिलता बहुत कुछ है। क्या इससे भी ज्यादा फायदे का कोई दूसरा सौदा हो सकता है?

गुरुवार, 28 मई 2009

लीडर होने के आधारभूत गुण

उनकी उम्र बयालीस साल की हो गई थी, लेकिन वे अभी तक अपना बिजनेस जमा नहीं पाए थे। चूंकि वे मेरे चाचा थे, इसलिए मैंने उनके लिए मशीनों में इस्तेमाल होने वाली बेल्ट की एजेंसी के बारे में बात की। एजेंसी तकनीकी सामान की थी, इसलिए जरूरी पाया गया कि सेल्समैन को एक महीने के लिए फैक्ट्री में रखकर प्रशिक्षित किया जाए। मैंने चाचाजी से कहा कि चूंकि यह बिजनेस उनके लिए एकदम नया है, इसलिए बेहतर होगा कि वे खुद भी उसकी थोड़ी-बहुत ट्रेनिंग ले लें। वे मेरी इस सलाह पर भड़कते हुए बोले, ‘जहां मेरा नौकर ट्रेनिंग ले रहा हो, वहां मैं भी ट्रेनिंग कैसे ले सकता हूं?’दूसरी घटना रोमानिया की है। भारत और रोमानिया के राष्ट्रपति के बीच आधिकारिक स्तर की बातचीत चल रही थी और हम कई लोग बाहर के कमरे में बैठे हुए बातचीत खत्म होने का इंतजार कर रहे थे। बातचीत के समाप्त होते ही रोमानिया के विदेश मंत्री हमारे कमरे में आए। उन्होंने हम सभी से पूरी गर्मजोशी से हाथ मिलाया, लेकिन हम सबके लिए चौंकाने वाली बात यह थी कि उन्होंने उस कमरे का दरवाजा खोलने वाले संतरी से भी उतनी ही गर्मजोशी से हाथ मिलाया।इन दोनों घटनाओं के आधार पर इस सवाल का उत्तर आसानी से मिल सकता है कि इनमें लीडर बनने लायक कौन है-मेरे चाचाजी या रोमानिया के विदेश मंत्री? हम भारतीयों की चेतना अभी भी सामंतवादी सोच की शिकार है। जबकि नेतृत्व के लिए सबसे अधिक जरूरत इस बात की होती है कि आप अपना कितना अधिक से अधिक सरलीकरण कर सकते हैं। आप इतने अधिक साधारण बन जाएं कि साधारण से साधारण आदमी भी आपको अपना समझने लगे, तभी आप नेतृत्व करने की विशिष्टता को हासिल कर सकते हैं और यही सच्ची लीडरशिप है।

मंगलवार, 19 मई 2009

‘जिन्दगी एक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या होगा किसने जाना’


मंथन के मोती, भाग-३ 
             ‘मंथन के मोतियों’ की थैली से एक चमकदार मोती लेकर मैं यानी डॉ॰ विजय अग्रवाल आप सबकी सेवा में आज फिर से उपस्थित हूँ। मुझे अपना आशीर्वाद दें और मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
             आपने ‘अंदाज’ फिल्म का यह गीत कभी-न-कभी जरूर सुना होगा कि ‘जिन्दगी एक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या होगा किसने जाना।’ यह बहुत ही प्यारा और बहुत ही फिलासॉफीकल गीत है। इसमें हमारे जीवन के बहुत महत्त्वपूर्ण संदेशों को पिरोया गया है। इसकी पहली ही लाईन में दो बहुत बड़ी बातें कही गई हैं। पहली बात तो यह कि जिन्दगी का जो सफर है, वह सुहाना होता है, डरावना नहीं। जिन्दगी जो भी है और जैसी भी है, ऐसी है जिसे प्यार किया जाना चाहिए और भरपूर प्यार किया जाना चाहिए। जो कुछ भी हमारे सामने आता है, उसे खुले मन से स्वीकार किया जाना चाहिए। 
            दूसरी जोरदार बात यह कही गई है कि लाईफ अनप्रेडिक्टेबल है। इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। यह नहीं बताया जा सकता कि कल क्या होगा। यानी कि यदि हम इन दोनों ही बातों को जोड़ दें, तो यह एक ऐसी सुहावनी यात्रा बन जाएगी, जिसके बारे में हमें पता ही नहीं। अगला कौन-सा स्टेशन आने वाला है, स्टेशन आने वाला है भी या नहीं और हम यह भी नहीं जानते कि यह गाड़ी जाकर रुकेगी कहाँ।
आप सोचकर देखें कि यदि हम सचमुच ऐसी गाड़ी में बैठ जाएं, जिसके जाने के बारे में ही कुछ पता न हो, तो हमारे लिए कितनी मुश्किल हो जाएगी। लेकिन जीवन की गाड़ी एक ऐसी ही गाड़ी है, जिसके पहुँचने का ठौर-ठिकाना नहीं होने के बाद भी हमें यह यात्रा सुख देती है और यह सुख सही अर्थों में न जानने का सुख है। कहीं भी न पहुँचने का सुख है।
             आप स्वयं अपने जीवन की यात्रा के बारे में सोचकर देखिए कि आपने उसकी शुरुआत कैसे की थी और आज आप कहाँ हैं? आज आप जहाँ हैं, क्या शुरूआत करने वाले दिन आप जानते थे कि यहाँ पहुँच जाएँगे। यदि आपका उत्तर यह है कि ‘‘मैं नहीं जानता था’’, तो यही न जानना ही तो यही अननोननेस ही तो जिन्दगी की सबसे बड़ी खूबसूरती है।
            तो आइए, यहाँ हम जानते हैं कुछ ऐसे लोगों की जीवन-यात्रा के बारे में, जो चले तो कहीं के लिए थे, लेकिन पहुँच कहीं और गए।
१. हीरो अक्षय कुमार बैंकाक में कूक हुआ करते थे, और मार्शल आर्ट के शौक के कारण बालीवुड में आ गए.
२. गायक शंकर महादेवन साफ्टवेयर इंजीनियर थे, और अमेरीका की ओरेकल कम्पनी में काम करते थे।
३. फिल्मकार गुरूदत्त टेलीफोन आपरेटर थे।
४. ‘काँटा लगा’ गर्ल शेफाली जरीवाला इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी इंजीनियर हैं।
५. अमीषा पटेल ने एम.ए.अर्थशास्त्र में गोल्ड मैडल लिया है।
६. ‘मुगल-ए-आजम’ फेम जनाब आसिफ दर्जी थे।
७. लता मंगेशकर को पाश्र्व गायन का पहला मौका देने वाले संगीतकार गुलाम हैदर की घड़ियों की   मरम्मत की दुकान थी।
८. सुनील दत्त रेडियो सिलोन में अनाउंसर एवं प्रोग्राम-कम्पोजर थे।
९. म.प्र. के मुख्यमंत्री प्रकाशचन्द सेठी एक मिल में क्लर्क थे।
         क्या आपको आश्चर्य नहीं हुआ इन सबके अतीत को जानकर? लेकिन यहाँ जो सबसे ध्यान देने की बात है, वह यह कि ये सब ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि इन्होंने अपने-आपको अपने वर्तमान का गुलाम नहीं बनाया। ये अपने जीवन यात्रा को एक सुखद यात्रा मानते हुए, एक अनजानी यात्रा मानते हुए लगातार बेहतरी के लिए काम करते रहे। इन्होंने अपने जीवन में जोखिम मोल लिया। इन लोगों को अपने-आप पर भरोसा था कि हम कुछ अच्छा कर लेंगे। साथ ही इनमें यह साहस भी था कि यदि गिर भी गए, तो कोई बात नहीं। फिर से खड़े हो जाएंगे और दौड़ना शुरू कर देंगे। जिन्दगी ऐसे ही लोगों को सलाम करती है, और ऐसे ही लोगों के लिए सही अर्थों में जिन्दगी एक सुहाना सफर बन जाती है।
           तो आप भी बनायें अपने जीवन को सुहाना। यह सुहाना बने, इसी कामना के साथ मैं अनुमति चाहता हूँ। साथ ही यह भी चाहता हूँ कि आप हमें बतायें कि हम आपके लिए और क्या कर सकते हैं।
                                                                                                                                 डॉ॰ विजय अग्रवाल