मंगलवार, 7 जुलाई 2009

मंथन के मोती, भाग - १४

'‘मंथन के मोती’’ में आपका स्वागत है। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।

हमारे यहाँ सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। सत्संग का अर्थ है अच्छा संग। तुलसीदास जी ने तो इसे और भी अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने पहले तो यह कहा कि ‘‘बिनु सत्संग विवेक न होई’ यानी कि अच्छे लोगों के संग के बिना ज्ञान नहीं मिलता। फिर इसके भी आगे जाकर उन्होंने कहा ‘बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता’। जब तक ईश्वर की कृपा नहीं होती। तब तक संत नहीं मिलते और जब तक संत नहीं मिलते तब तक सत्संग नहीं होता। जब तक सत्संग नहीं होता तब तक विवेक जागृत नहीं होता और जब विवेक ही जागृत नहीं होगा, तब भला जीवन अच्छा कैसे हो सकता है। इसीलिए तो हमारे बड़े-बूढ़े बचपन से ही अपने बच्चों को बताते रहते हैं-जैसी संगत वैसी रंगत। वे बताते रहते हैं कि अच्छे लोगों के साथ रहने से बुरे लोग भी वैसे ही अच्छे बन जाते हैं जैसे कि चंदन के वृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी में भी चन्दन की सुगन्ध समा जाती है।
बात बहुत स्पष्ट है कि जब भी अच्छे लोग मिलेंगे, कुछ न कुछ अच्छी बातें ही करेंगे। जब वे कुछ न कुछ अच्छी बातें करेंगे, तो कुछ न कुछ अच्छा ही होगा। दुनिया में बहुत से अच्छे काम कुछ अच्छे लोगों के आपस में मिलने के कारण ही हो पाए हैं। तो लीजिए मैं प्रस्तुत करता हूँ इसी तरह का एक सच्चा उदाहरण, जिसने एक ऐसी फिल्म कम्पनी की स्थापना कर दी, जिसे हम विमल दा प्रोडक्शन के नाम से जानत हैं। इस कम्पनी ने देश को ‘सुजाता’ और ‘बंदिनी’ जैसी अनेक कालजयी फिल्में दीं। लीजिए सुनिए इस कम्पनी के बनने की यह कहानी-
‘विमल दा प्रोडक्शन’, जिसने ‘दो बीघा जमीन’ जैसी यथार्थवादी फिल्म बनाई थी, का जन्म अचानक बम्बई की डबलडेकर बस में हुआ था। हुआ यों कि एक बार बिमल दा अपने साथियों-ऋषिकेश मुखर्जी, असीन सेन आदि के साथ मुम्बई के इरोज थियेटर से जापानी फिल्मकार कुरोसावा की ‘रोसोमन’ देखकर लौट रहे थे। बिमल राय ने अपने साथियों से पूछा कि ‘‘हम ‘रोसोमन’ जैसी यादगार फिल्म क्यों नही बना सकते।’’ बस, इसी उद्देश्य से उन्होंने वहीं एक फिल्म कम्पनी बनाने का फैसला कर लिया।
क्या आपको नहीं लगता कि यदि ये तीनों मित्र उस समय नहीं मिले होते, तो हमारा देश कई महत्वपूर्ण सामाजिक फिल्मों को देखने से वंचित रह जाता। बिमल दा प्रोडक्शन ने जिन सामाजिक उद्देश्यों को लेकर फिल्में बनाईं, जो मधुर गीत और संगीत उन्होंने भारतीय वातावरण में घोले, वे अपने-आपमें उदाहरण हैं।
जब भी हम अच्छे लोगों से मिलते हैं, हमारे मस्तिष्क का वातावरण ठीक उसी तरह से अच्छा हो जाता है जैसे कि हम किसी बागीचे में पहुँचने के बाद महसूस करते हैं। हमारे मस्तिष्क का वातावरण भी हमेशा स्वच्छ, सुन्दर, प्रकाशवान और हवादार बना रहे, इसके लिए आवश्यक हैं कि हम अपने दिन भर का कुछ न कुछ समय अच्छे लोगों की संगत में बिताएँ। 
‘‘मंथन के मोती’’ के साथ बिताया गया समय भी एक ऐसा ही अच्छा समय है। क्या ऐसा नहीं है? हमें बताएँ, हमें लिखें, हमें अच्छा लगेगा। आज के लिए इतना ही। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

अच्चे संग से सफलता सुनिश्चित करें

मंथन के मोती, भाग - 14
‘‘मंथन के मोती’’ में आपका स्वागत है। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
हमारे यहाँ सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। सत्संग का अर्थ है अच्छा संग। तुलसीदास जी ने तो इसे और भी अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने पहले तो यह कहा कि ‘‘बिनु सत्संग विवेक न होई’ यानी कि अच्छे लोगों के संग के बिना ज्ञान नहीं मिलता। फिर इसके भी आगे जाकर उन्होंने कहा ‘बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता’। जब तक ईश्वर की कृपा नहीं होती। तब तक संत नहीं मिलते और जब तक संत नहीं मिलते तब तक सत्संग नहीं होता। जब तक सत्संग नहीं होता तब तक विवेक जागृत नहीं होता और जब विवेक ही जागृत नहीं होगा, तब भला जीवन अच्छा कैसे हो सकता है। इसीलिए तो हमारे बड़े-बूढ़े बचपन से ही अपने बच्चों को बताते रहते हैं-जैसी संगत वैसी रंगत। वे बताते रहते हैं कि अच्छे लोगों के साथ रहने से बुरे लोग भी वैसे ही अच्छे बन जाते हैं जैसे कि चंदन के वृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी में भी चन्दन की सुगन्ध समा जाती है।
बात बहुत स्पष्ट है कि जब भी अच्छे लोग मिलेंगे, कुछ न कुछ अच्छी बातें ही करेंगे। जब वे कुछ न कुछ अच्छी बातें करेंगे, तो कुछ न कुछ अच्छा ही होगा। दुनिया में बहुत से अच्छे काम कुछ अच्छे लोगों के आपस में मिलने के कारण ही हो पाए हैं। तो लीजिए मैं प्रस्तुत करता हूँ इसी तरह का एक सच्चा उदाहरण, जिसने एक ऐसी फिल्म कम्पनी की स्थापना कर दी, जिसे हम विमल दा प्रोडक्शन के नाम से जानत हैं। इस कम्पनी ने देश को ‘सुजाता’ और ‘बंदिनी’ जैसी अनेक कालजयी फिल्में दीं। लीजिए सुनिए इस कम्पनी के बनने की यह कहानी-
मिले होते, तो हमारा देश कई महत्वपूर्ण सामाजिक फिल्मों को देखने से वंचित रह जाता। बिमल दा प्रोडक्शन ने जिन सामाजिक उद्देश्यों को लेकर फिल्में बनाईं, जो मधुर गीत और संगीत उन्होंने भारतीय वातावरण में घोले, वे अपने-आपमें उदाहरण हैं। जब भी हम अच्छे लोगों से मिलते हैं, हमारे मस्तिष्क का वातावरण ठीक उसी तरह से अच्छा हो जाता है जैसे कि हम किसी बागीचे में पहुँचने के बाद महसूस करते हैं। हमारे मस्तिष्क का वातावरण भी हमेशा स्वच्छ, सुन्दर, प्रकाश
‘विमल दा प्रोडक्शन’, जिसने ‘दो बीघा जमीन’ जैसी यथार्थवादी फिल्म बनाई थी, का जन्म अचानक बम्बई की डबलडेकर बस में हुआ था। हुआ यों कि एक बार बिमल दा अपने साथियों-ऋषिकेश मुखर्जी, असीन सेन आदि के साथ मुम्बई के इरोज थियेटर से जापानी फिल्मकार कुरोसावा की ‘रोसोमन’ देखकर लौट रहे थे। बिमल राय ने अपने साथियों से पूछा कि ‘‘हम ‘रोसोमन’ जैसी यादगार फिल्म क्यों नही बना सकते।’’ बस, इसी उद्देश्य से उन्होंने वहीं एक फिल्म कम्पनी बनाने का फैसला कर लिया।
क्या आपको नहीं लगता कि यदि ये तीनों मित्र उस समय नहीं
वान और हवादार बना रहे, इसके लिए आवश्यक हैं कि हम अपने दिन भर का कुछ न कुछ समय अच्छे लोगों की संगत में बिताएँ।
‘‘मंथन के मोती’’ के साथ बिताया गया समय भी एक ऐसा ही अच्छा समय है। क्या ऐसा नहीं है? हमें बताएँ, हमें लिखें, हमें अच्छा लगेगा। आज के लिए इतना ही। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

सोमवार, 6 जुलाई 2009

मन और दिमाग के जालों को साफ़ करें


मंथन के मोती, भाग - 13

आप सभी को मेरा प्रणाम। ‘‘मंथन के मोती’’ के साथ मैं आज फिर कुछ समय आप लोगों के साथ बिताने के लिए उपस्थित हूँ। मेरा विश्वास है कि यह जो थोड़ा-सा समय आप हमें दे रहे हैं, यह आपके जीवन में थोड़ा न थोड़ा तो ज्यादा बनकर वापस आ ही रहा होगा।
आज हम सभी भागम-भाग की जिन्दगी जी रहे हैं। जिससे भी बात कीजिए, वह परेशान सा नजर आता है। हमारी ढेर सारी परेशानियाँ तो ऐसी होती हैं, जिनके लिए हम खुद ही जिम्मेदार होते हैं। ऊपरी तौर पर तो यही लगता है कि यह परेशानी किसी दूसरे के कारण है। लेकिन सच्चाई कुछ अलग ही होती है।
मैंने इस सच्चाई पर खूब गौर किया है और उसी में से एक सच्चाई को मैं अभी आपके साथ शेयर करने जा रहा हूँ।
हमारी परेशानियों का सबसे पहला कारण यह होता है कि हमारे दिमाग में यह बात स्पष्ट ही नहीं होती कि आखिर हम चाहते क्या हैं। कोई धन चाहता है। और जब धन मिल जाता है, तब भी परेशान रहता है। कोई पद चाहता है। जब पद मिल जाता है, तो उसकी परेशानी बढ़ जाती है। संतानहीन दम्पत्ति सन्तान के लिए जाने क्या-क्या करती हैं। जबकि जिसे सन्तान मिली हुई है, वह अपनी सन्तानों से दुखी हैं। सोचकर देखिए कि आखिर यह घालमेल है क्या। जब कोई चीज़ नहीं होती, तब हम उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। और जब वह मिल जाती है, तो वह न केवल दो कौड़ी की हो जाती है, बल्कि हम उससे परेशान होने लगते हैं।
वस्तुतः परेशानी बाहर नहीं होती, हमारे अन्दर होती है। जब हमारे विचार स्पष्ट नहीं होते, तब हमारे उद्देश्य स्पष्ट नहीं होते, तब परेशानी पैदा होने लगती है। और जैसे-जैसे हम अपने विचार और उद्देश्यों में उलझते जाते हैं वैसे-वैसे परेशानियाँ बढ़ने लगती हैं।
इस बारे में मुझे रामकृष्ण परमहंस के साथ घटी एक सच्ची घटना याद आ रही है। मैं आपसे यहाँ इस घटना को प्रस्तुत किए जाने की अनुमति चाहूँगा।
हुआ यूँ कि एक दिन रामकृष्ण परमहंस जी के पास एक सेठ जी आए। उनके हाथ में अशर्फियों की थैली थी। सेठ जी ने वह थैली परमहंस जी के चरणों में रखते हुए उसे स्वीकार करने की प्रार्थना की। परमहंस जी ने कहा कि ‘‘मैं इसका क्या करूँगा? गरीबों को बाँट देना।’’ सेठ जी इस पर बोले कि ‘‘मैं तो यह धन आपको सौंपने आया हूँ। अच्छा होगा कि आप ही इसे गरीबों को बाँट दें।’’ यह सुनकर परमहंस जी को पता नहीं क्या लगा कि उन्होंने अशर्फियों की वह थैली अपने हाथ में ले ली और इसके बार तुरन्त ही वह थैली फिर से सेठ जी को सौंपते हुए बोले-‘‘तुम एक काम करो। इस थैली को पास की नदी में डालकर मेरे पास लौट आओ।’’
सेठ जी यह सुनकर दंग रह गए और परमहंस जी के मुँह की तरफ देखने लग गए। रामकृष्ण जी ने कहा अब यह धन मेरा है। मैं इसका चाहे जो भी करूं। अब यह तुम्हारा नहीं है। तुमको जो काम कहा है, तुम वह करो।’’ सेठ जी मजबूर थे वे वहाँ से चले गये। जब वे दो घंटे तक लौटकर नहीं आए, तो परमहंस जी ने अपने एक शिष्य को सेठ जी की खोज-खबर लेने के लिए भेजा। शिष्य ने वहाँ जाकर देखा कि सेठ जी नदी के किनारे बड़े दुखी मन से बैठे हुए हैं। वे थैली से एक अशर्फी निकालते और नदी में डाल देते। शिष्य ने यह बात आकर परमहंस जी को बताई। परमहंस सुनकर मन ही मन मुस्कराने लगे।
इस कहानी को सुनने के बाद आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर ढूढंने की कोशिश करें कि जब परमहंस थैली नहीं ले रहे थे, तब सेठ जी क्यों दुःखी थे और अब जब थैली लेकर उसे नदी में डालने के लिए कहा है, तब भी सेठ जी दुःखी क्येां हैं। क्या आपको नहीं लगता कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि सेठ जी अपने विचारों में उलझे हुए हैं और उनका उद्देश्य साफ नहीं है। हालाँकि वे थैली तो परमहंस जी को सौंप चुके हैं लेकिन मन से वे धन की थैली से जुड़े हुए हैं। यदि वे यह सोच लेते कि अब यह धन मेरा नहीं है, तो उन्हें उस थैली को नदी में डालने में केवल एक सैकण्ड लगता। लेकिन मन और विचार की उलझन ने उनको पूरी तरह से उलझा दिया है।
हम सब के साथ भी यही होता है। छोटी बातों से लेकर बड़ी-बड़ी बातों तक यही होता है। यदि हम एक बार अपने दिमाग की इन जालों को साफ कर लें, तो आप देखेंगे कि हम खुद को अन्दर से कितने शक्तिशाली महसूस करेंगे। हमारा मस्तिष्क प्रकाशवान हो जाएगा। हमारी आत्मा की शक्ति बढ़ जाएगी और हम एक अलग ही तरह का सरल, सहज जीवन जीने लगे हैं।
आप करके तो देखिए एक बार। अगर आपको इसमें सफलता न मिले, तो आप हमें बताएं। तब हम आपको मंथन के कुछ और ऐसे मोती देंगे, जो आपकी इस सफलता को सुनिश्चित करेंगे। अब मैं अनुमति चाहूँगा। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

रविवार, 5 जुलाई 2009

काल करे सो आज कर, आज करे सो अब

मंथन के मोती, भाग - १२
सादर नमस्कार। मंथन के मोतियों की थैली में से एक मोती लेकर आज फिर आपके सामने उपस्थित हूं। आज के इस ‘मंथन के मोती’ में हम समय के महत्त्व के बारे में जानना चाहेंगे।
समय को हमारे यहाँ काल कहा गया है। काल यानी कि मृत्यु। मृत्यु यानी कि सबसे बड़ा, जिससे कोई नहीं बच पाया, सिवाय ब्रह्मा, विष्णु और महेश के। तभी तो उज्जैन के शिव को महाकाल कहा गया है।
समय ही तो एक ऐसी वस्तु है, जिसको देने में भगवान तक को समान दृष्टि रखनी पड़ी है। भगवान ने सभी को एक जितना ही समय दिया है, चाहे वह सम्राट हो या सारथी। वहाँ बँटवारे में कोई भेदभाव दिखाई नहीं पड़ता। जो भेद हमें दिखाई देता है, वह इस बात के कारण कि किस व्यक्ति न अपने समय का कितना और किस तरह से उपयोग किया है। जिसने समय को एक बहुत बड़ी पूँजी समझकर उसका तरीके से उपयोग किया, वह सम्राट बन गया और जिसने उसे यूँ ही जाने दिया, वह सारथी रह गया।
इसीलिए तो संत कबीर ने लगभग साढे पाँच सौ साल पहले हम सभी को चेताते हुए कहा था-
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब।
जितने भी महान लोग हुए हैं, उन्होंने कबीरदास के इस दोहे को आत्मसात कर लिया था। वे किसी भी काम को कल के ऊपर टालते नहीं थे। ऐसे महान लोगों में महाभारत के पात्र कर्ण भी शामिल थे। तो आइए, सुनते हैं महादानी कर्ण से जुड़ी यह छोटी-सी घटना-
एक बार की बात है। कर्ण अपने दरबार में बैठे हुए थे। उसी समय उनके दरबार में एक याचक आया। याचक ने अपने हाथ फैलाकर कर्ण से दान मांगा। कर्ण उस समय कुछ काम कर रहे थे। याचक की आवाज सुनते ही कर्ण ने अपना बायां हाथ उठाया और उससे अपने गले का हार निकालकर याचक को दे दिया।
कर्ण के इस कृत्य को एक दरबारी देख रहा था। उसने आपत्ति जताते हुए कहा-‘‘महाराज, अपराध क्षमा हो। आप जानते ही हैं कि बाएं हाथ से दान नहीं दिया जाना चाहिए। जानते हुए भी आपने यह अधर्म क्यों किया?’’ कर्ण ने उत्तर दिया-‘‘याचक ने जब मुझसे दान मांगा, उस समय मेरे आसपास मेरे गले के हार के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था। उस समय मेरा दायां हाथ व्यस्त था। हो सकता था कि यदि मैं दाएं हाथ को खाली करके दान देने की सोचता तो इतने समय में ही मेरा मन बदल जाता और मैं अपना हार उतारकर उस याचक को नहीं दे पाता। कौन जाने कि पल भर में क्या हो सकता है। इसलिए मैंने अपने बाएं हाथ से ही अपने हार का दान कर दिया।’’आप सोच सकते हैं कि जो व्यक्ति एक-एक पल को इतना महत्त्व देता हो, उसके लिए जीवन में ऊँचाइयाँ छू जाना कोई कठिन नहीं रह जाता।
मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप एक बार इसे आजमाकर देखें। करना आपको केवल यह है कि जिस काम को आप तुरन्त कर सकते हों, उसे तुरन्त कर डालें। टालें नहीं।
अपने दिन भर के समय की एक योजना बना लें कि क्या-क्या करना है। इन कामों की प्राथमिकता निश्चित कर लें और फिर उन्हें करने लगें।
आप केवल ये दो तरीके अपनाएं। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि आपकी ढेर सारी दिमागी परेशानियाँ इसी से कम हो जाएंगी। कुछ तो बिल्कुल खत्म ही हो जाएंगी। समय पर आपका नियंत्रण हो जाएगा और जैसे ही यह होगा, आपको अपने कामों में मज़ा आने लगेगा।
आज के मंथन में इतना ही। आप हमें अपने विचारों से अवगत कराएं कि यह मोती आपको कैसे लग रहे हैं। इससे हमें मदद मिलेगी। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

शनिवार, 4 जुलाई 2009

स्वयं का वैल्यू एडिशन कर छुएं सफलता का शिखर

मंथन के मोती, भाग - ११ 
मंथन के मोती के श्रद्धालु दर्शकों को मेरा प्रणाम।
     आज मैं आपके सामने एक बहुत ही व्यावहारिक बात रखने जा रहा हूँ। मुझे आशा है कि इसे आप सभी अपने-अपने जीवन में लागू करके अपनी क्षमताओं को बढ़ाने के लिए उपयोग में लाएंगे।
भगवद्गीता के बारे में तो आप जानते ही हैं। आपने इसे पढ़ा होगा। यदि पढ़ा न हो, तो इसके बारे में सुना जरूर होगा। यह पूरे विश्व को कर्म का सन्देश देने वाला श्रेष्ठतम् ग्रन्थ है। कर्म ही पूजा है और निष्काम कर्म ही सच्चा संन्यास है, इस आदर्श की स्थापना गीता ने की है।
     जब हम कर्म की बात करते हैं तो ज्यादातर होता यह है कि केवल काम की ही बात होती रहती है। हम यह भूल जाते हैं कि किसी भी काम को करने का अपना एक तरीका भी होता है। इसी तरीके को हमारे शास्त्रों में विज्ञान कहा गया है। ऋग्वेद में ज्ञान और विज्ञान दोनों शब्द आए हैं। वहाँ ज्ञान का अर्थ है-जानकारी तथा विज्ञान का अर्थ है-उस जानकारी का उपयोग करना। इस प्रकार हम विज्ञान को एप्लायड नालेज कह सकते हैं। 
     यहाँ यह स्पष्ट है कि यदि हम ज्ञान का उपयोग नहीं कर रहे हों, तो वह व्यर्थ है। ज्ञान का उपयोग हम तभी कर सकते हैं, जब कोई काम करें। और कोई काम तभी पूरा हो सकता है, जब उसे वैज्ञानिक ढंग से किया जाए। जब हम कोई भी काम चाहे; वह झाडू लगाने, बर्तन मांजने और कपड़े धोने का ही काम क्यों न हो, सही तरीके से करते हैं, तो न केवल वह काम जल्दी होता है बल्कि अच्छा भी होता है। यह कम बड़ी बात नहीं है। जब काम जल्दी होता है और अच्छे तरीके से होता है, तो हमें उस काम को करने में ऊब नहीं होती। बल्कि इसके विपरीत उस काम में आनन्द आने लगता है। यदि किसी काम को करने में आनन्द आने लगे तो इससे बड़ा उपहार भला और क्या हो सकता है।
तो आइए, सुनते हैं धोबी और मुनीम की एक छोटी-सी कहानी।
      एक सेठ जी के यहाँ एक मुनीम जी और एक धोबी था। धोबी गधों पर कपड़े लादकर नदी जाता। गठरी भर कपड़े धोता और फिर लादकर घर वापिस आता। उसका पूरा दिन खप जाता था इसमें। जबकि मुनीम जी दस बजे आते। दिन भर आराम से गद्दी पर बैठे रहते और दिन ढलने के बाद घर चले जाते। धोबी को बहुत कम पैसा मिलता था जबकि मुनीम जी को उससे बहुत ज्यादा। 
      धोबी को यह बात अन्यायपूर्ण लगी। उसने सेठजी से इस बात की शिकायत की कि मुनीम दिन भर बैठा रहता है, जबकि मैं दिन भर जमकर मेहनत करता हूँ। फिर भी मुझे मुनीम से बहुत कम पैसे मिलते हैं। 
एक दिन सेठजी ने धोबी को बुलाया और कहा कि नगर में एक बारात आयी हुई है। जाकर पता करो कि कितने लोग आए हैं। धोबी गया और आकर बताया कि दो सौ लोग आए हैं। सेठ जी ने पूछा कि बारात कहाँ से आयी है? धोबी फिर से गया और आकर बताया कि ‘‘रामपुर से आयी है।’’ सेठ जी ने पूछा कि बारात किसके यहाँ आयी है? धोबी फिर से गया और लौटकर बोला-‘‘सेठ चन्दूलाल के यहाँ आयी है। सेठ जी ने फिर पूछा कि ‘‘बारात रामपुर कब लौटेगी? धेाबी फिर गया और वापस आकर बोला कि परसों।
      उसी के सामने सेठजी ने मुनीम को बुलाया और कहा कि-‘‘मुनीम जी पता करके बताइए कि बारात में कितने लोग आए हैं?’’ मुनीम जी गए और लौटकर बोले कि ‘‘दो सौ लोग। इसके बाद सेठ जी ने वही-वही सारे प्रश्न मुनीम से पूछे जो धोबी से पूछे थे। मुनीम जी ने सभी प्रश्नों के उत्तर तुरन्त दे दिए। यहाँ तक कि जब सेठ जी ने और अधिक जानना चाहा, तो उन सभी के जवाब भी मुनीम के पास मौजूद थे। धोबी यह सब देख रहा था। उसने सेठ जी से माफी मांगते हुए कहा कि ‘‘सेठ जी मैं समझ गया कि मुनीम जी की तनख्वाह मुझसे ज्यादा क्यों है।’’
      यह कहानी भले ही दादा-आदम के जमाने की क्यों न हो, लेकिन है बहुत काम की। हमें दूसरों की थाली में तो ज्यादा घी दिखता है लेकिन हम इस पर कभी विचार नहीं करते कि हमारी थाली में घी क्यों नहीं है। हमें कुछ समय यह सोचने में भी लगाना चाहिए कि हम जो काम कर रहे हैं, कैसे उसे और बेहतर तरीके से करें। इसे ही आज की भाषा में कहा जाता है-वैल्यू एडीशन करना। यही तरीका हमारी कीमत बढ़ाकर हमें उन्नति के शिखर पर पहुँचा सकता है। अन्यथा यदि हम कोल्हू के बैल की तरह लगे रहेंगे, तो काम तो होता रहेगा, जिन्दगी भी चलती रहेगी, लेकिन उसमें वह गुणवत्ता नहीं आएगी, जो वास्तव में आनी चाहिए।
      तो आज की बात यहीं तक। आपसे फिर मिलेंगे। तब तक के लिए मेरा नमस्कार स्वीकार करें।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

जैसा प्रयास, वैसी उपलब्धि


मंथन के मोती, भाग - 10 
नमस्कार। ‘मथन के मोती’ में आप सभी का हार्दिक स्वागत है और अभिनन्दन भी। इस कार्यक्रम में मैं न जाने कहाँ-कहाँ से आपके लिए छोटे-छोटे किन्तु काफी मूल्यवान मोती लेकर आता हूँ। मुझे विश्वास है कि ये मोती आपको जरूर पसन्द आते होंगे। इसी तरह का एक छोटा-सा किन्तु बिल्कुल नया मोती आज मैं आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। आज का यह मोती यहूदी धर्म की मान्यता से जुड़ा हुआ है। तो पहले यह मान्यता सुनें।
यहूदी मान्यता में ‘तालमुड’ के अनुसार ईश्वर गर्भ में हर बच्चे के पास एक व्यक्तिगत फरिश्ते को भेजता है, जो हमें वह सारा ज्ञान देता है, जिसे जानने की जरूरत पड़ेगी। और फिर हमारे जन्म लेने से ठीक पहले अपनी ऊँगली से हमारी नाक और ऊपरी होंठ के बीच हल्के से दबाता है, और हम उसका सिखाया सब कुछ भूल जाते हैं। इसलिए यह हिस्सा थोड़ा दबा हुआ सा होता है, जिसे शरीर-विज्ञान की भाषा में ‘फिलट्रम’ कहते हैं।
अजीब मान्यता है यह। पहले सिखाया, और फिर सब कुछ भुला दिया। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि सीखने का सबसे अच्छा तरीका है, खुद सीखना, उससे खुद गुजरना। यह भी कि यदि कोई चीज एक बार सीख ली जाए, तो उसे दुबारा सीखना आसान हो जाता है। ईश्वर मदद करते हैं-‘‘मैं तुम्हें मंजिल के बारे में यात्रा शुरू करने से पहले ही बता देता हूँ, ताकि जब तुम वहाँ पहुँचो, सब कुछ जाना-पहचाना और आसान लगे।’’
है न कितनी अच्छी और मजेदार मान्यता। आप चाहें तो ईश्वर से शिकायत कर सकते हैं कि यदि भूलाना ही था तो फिर सिखाया क्यों? यहूदी मान्यता में हमें इसका बहुत सुन्दर जवाब मिलता है। जवाब यह है कि इस धरती पर कोई भी वस्तु हमें यूँ ही नहीं मिलेगी। वह वस्तु मौजूद तो है, लेकिन उसे प्राप्त करना होगा। कोई हमें थाल में रखकर नहीं देगा और यदि दे भी देता है, तो उसकी हमारे लिए कोई कीमत नहीं रह जाती। 
अभी मेरे दिमाग में यह एक प्रश्न आ रहा है कि अधिकांश देवी के मन्दिर पहाड़ियों पर ही स्थित क्यों रहते हैं? माँ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए बारह किलोमीटर की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। यहाँ तक कि अन्य देवियों के मन्दिरों पर माथा टेकने के लिए कुछ-न-कुछ ऊँची चढ़ाई चढ़नी ही पड़ती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह भी इसी मान्यता से जुड़ी हुई बात हो। शायद माँ चाहती हों कि मेरे पास वही आए, जो सच में आना चाहता है। ऐसा नहीं कि यूँ ही रास्ते से गुजर रहे थे और सोचा कि चलो दर्शन भी कर लें। यदि माँ के दर्शन करने हैं, तो उसके लिए उद्देश्य बनाना पड़ेगा और उद्देश्य बनाने के बाद थोड़ी-सी चढ़ाई भी चढ़नी पड़ेगी। हाँ, चढ़ाई चढ़ सकें इसके लिए हमें पैर दे दिए गए हैं। इन पैरों को गतिशील अब हमें स्वयं करना होगा तब कहीं जाकर हम अपने लक्ष्य तक पहुँच सकेंगे।
यदि हम जीवन में श्रम के और कर्म के इस महत्त्व को पूरे खुले मन से स्वीकार कर लेते हैं, तो हमारी कई कठिनाईयाँ अपने-आप ही समाप्त हो जाती हैं। यही हालत होती है, हमारी अनेक शिकायतों की भी। हम सभी को उतना ही मिलता है, जितनी की पात्रता हममें होती है। जितना बड़ा होगा हमारा पात्र, ईश्वर के द्वारा दी गई उतनी ही भिक्षा उसमें समाएगी। जैसे होंगे हमारे प्रयास, वैसी ही होगी हमारी उपलब्धि। अभिलाषाओं से उपलब्धियाँ नहीं मिला करतीं। हमसे गलती यही होती है कि हम अभिलाषा करते हैं और जब यह पूरी नहीं होती, तो शिकायत करते हैं।  
तो आइए, हम अपने अभिलाषाओं को कर्म का सहारा दें, ताकि वे अभिलाषाएँ उपलब्धियाँ बन सकें। आज के मंथन में बस इतना ही। आगे आपसे फिर भेंट होगी। अंत में एक निवेदन यह कि आपको यह कार्यक्रम कैसा लगा, हमें जरूर बताएँ ताकि हम इसे और अच्छे-से-अच्छा बना सकें।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है