रविवार, 31 मई 2009

जिंदगी के रास्ते कभी खत्म नहीं होते!


कुछ विचित्र सी खबरें पढ़ने को मिलती हैं। खबर यह होती है कि अमूक विद्यार्थी ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसे अच्छी अँगरेजी नहीं आती थी। यह भी खबर पढ़ने को मिलती है कि उसने आत्महत्या कर ली, क्योंकि उसकी प्रेमिका ने उसे ठुकरा दिया या प्रेमी से उसकी शादी नहीं हो सकी। यह पढ़कर न केवल गहरा दुःख होता है, बल्कि धक्का सा पहुँचता है।
दुःख इसलिए होता है कि एक ऐसा जीवन जिसे इस धरती ने अपनी गोद में 18-20 साल रखा। जिसे प्रकृति ने अपनी हवा, पानी और रोशनी से पाला-पोसा, वह यूँ ही एक मिनट में इन सबको ठुकराकर इतना अधिक निर्दयी बनाकर एक मिनट में चलता बना। वह कुछ बनकर इस धरती कोऔर बेहतर बनाने में जो अपना योगदान दे सकता था, उस संभावना को उसने अपने जीवन की समाप्ति के साथ ही समाप्त कर दिया।
धक्का मुझे इसलिए लगता है कि मैं सोचता हूँ कि क्या इतने अमूल्य, इतने महत्वपूर्ण और इतने असाधारण जीवन को ऐसी छोटी-छोटी बातों के लिए खत्म कर दिया जाना चाहिए? कम से कम मैं तो इससे इत्तफाक नहीं रख पाता। हो सकता है कि मेरी इस बात से मेरे युवा साथी सहमत न हों, क्योंकि उन्हें प्रेम की सफलता और असफलता जिंदगी की एक बहुत बड़ी बात मालूम पड़ती है। इसलिए वे इसके लिए मरने और मारने की बात को एक प्रकार से अपने अस्तित्व से ही जोड़कर देखने लगते हैं।
उन्हें लगता है कि यदि प्रेम ही नहीं रह गया तो जिंदगी के रहने का अर्थ ही क्या है।
और समाज में ऐसे भावुक युवा प्रेमियों को समझा पाना इतना आसान भी नहीं होता। ऐसे कई लोगों से मेरा साबका पड़ा है और मैंने समझाने की इस परेशानी को झेला भी है। मैंने पाया है कि उनके सारे सच के केंद्र में उनकी अतिरिक्त भावुकता होती है।
यदि उनकी इस भावुकता पर तार्किकता की थोड़ी सी भी लगाम कसी जा सके तो ऐसी न जाने कितनी जिंदगियों को नष्ट होने से बचाया जा सकता है। यहाँ तक कि बहुत सी ऐसी भी जिंदगियाँ होती हैं, जो नष्ट तो नहीं होती, लेकिन अपने उस खोए हुए प्यार को अपने दिल में दबाए हुए अपने लिए लगातार बर्बादी के रास्ते तलाशती रहती है। ये जितना बेहतर जीवन जी सकते थे, अपने-आपको उस बेहतर जीवन से वंचित कर लेते हैं।


मित्रों सातवें दशक के एक बहुत खूबसूरत फिल्मी गीत की पंक्तियाँ हैं-


छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए

यह मुनासिब नहीं जिंदगी के लिए।

प्यार से भी जरूरी कई काम हैं

प्यार सब कुछ नहीं जिंदगी के लिए।


प्यार बहुत कुछ तो हो सकता है, लेकिन सब कुछ कतई नहीं। और यदि सच पूछिए तो प्रेम केवल तभी तक प्रेम रहता है, जब तक कि वह आपको मिलता नहीं। जैसे ही प्रेम मिल जाता है, यानी कि प्रेमिका पत्नी और प्रेमी पति बन जाता है, जैसे ही प्रेम उड़न-छू हो जाता है। स्पष्ट है कि जब प्रेमी प्रेमी नहीं रहा और प्रेमिका प्रेमिका नहीं रही, तो फिर भला प्रेम ही प्रेम कैसे रह सकता है। मैं जानता हूँ कि मेरी इस बात पर सौ प्रश प्रेम-प्रेमिका भरोसा नहीं करेंगे, क्योंकि इस पर भरोसा करने के लिए अनुभव की जरूरत होती है और यदि एक बार अनुभ वहो जाए तो फिर आप भरोसा करें या न करें उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता।
इसलिए फिलहाल तो मैं अपने युवा मित्रों से यही कह सकता हूँ कि कृपया यकीन करें। साथ ही एक बात और। जिंदगी के किसी भी क्षेत्र की सफलता का परिणाम आप अपने जीवन के अंत में क्यों ढ़ूँढते हैं? आपको लगता होगा कि यह जिंदगी आपकी है और आप इसके साथ जैसा चाहें, बर्ताव कर सकते हैं।
यदि आप ऐसा सोचते हैं कि जो गलत सोचते हैं, क्योंकि यह जिंदगी आपकी होकर भी आपकी नहीं है। यह ईश्वर और प्रकृति के द्वारा आपके पास रखी गई एक धरोहर मात्र है। आप इसके केवल रखवाले भर हैं। जिस तरह एक चौकीदार उस घर का मालिक नहीं हो जाता जिसकी वह रखवाली कर रहा है, उसी तरह आप भी अपने शरीर के मालिक नहीं है, जिसको आप पाल-पोस रहे हैं। आपके माँ-बाप ने इसको तैयार किया है और पूरी प्रकृति और पूरा समाज मिलकर इसके अस्तित्व को बनाए रखने में इसकी मदद कर रहा है। इसलिए किसी व्यक्ति को यह अधिकारी नहीं होता कि वह ईश्वर की इस धरोहर को नष्ट कर दे।
मित्रों जीवन में कभी ऐसा नहीं होता कि रास्ते खत्म हो जाते हैं। रास्ते खत्म नहीं होते; हाँ, वे मुड़ सकते हैं। बड़े रास्ते छोटी पगडंडियाँ बन सकती हैं। लेकिन वे मरती कभी नहीं। जिंदगी हमेशा संभावनाओं से भरा हुआ एक विशाल कर्मक्षेत्र होता है जहाँ एक दरवाजा बंद होने पर सौ दरवाजे खुलने की प्रतीक्षा करते रहते हैं।
आपको करना केवल यह होता है कि अपने आँखों के आँसुओं को पोंछकर आँखें उठाकर आशा भरी नजरों से क्षितिज को निहारना होता है और आपके देखते ही देखते न जाने कितने दरवाजे उन्मुक्त हो जाते हैं। इसलिए उदास, निराश और हताश होने की कोई जरूरत ही नहीं होती।

शनिवार, 30 मई 2009

सच्चा प्रेम

‘‘मैं तुमसे बहुत प्रेम करती हूँ।’’
‘‘लेकिन मैं तो तुमसे नहीं करता।’’
‘‘इससे क्या, लेकिन मैं तो तुमसे करती हूँ।’’
‘‘तुम नहीं जानती मुझे। सच तो यह है कि मैं तुमसे घृणा करता हूँ।’’
‘‘शायद इसीलिए मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, क्योंकि बाकी सभी मुझसे प्रेम करते हैं।
एक तुम ही अलग हो, जो मुझसे घृणा करते हो।’’
कहते हैं कि दोनों ने अपने इस रिश्ते को ताउम्र निभाया।
विजय अग्रवाल

शुक्रवार, 29 मई 2009

मुस्कान के महत्व को समझें


इंग्लैंड की होने के नाते वह गोरी-चिट्टी तो थीं ही, छरहरी भी थीं। कद उनका मझोला था। उनकी आंखों में गजब का आकर्षण था। ये वह महिला थीं, जिनकी खूबसूरती और विद्रोही किस्म के किस्सों की डुगडुगी इंग्लैंड में ही नहीं, बल्कि सारी दुनिया में बज रही थी और मैं उन सौभाग्यशाली लोगों में से था, जिन्हें उनसे हाथ मिलाने का अवसर मिला था।
सच कहूं तो वह मुझे सुंदर तो लगीं, लेकिन इतनी नहीं कि दुनिया उन पर मोहित हो जाए। आखिर उनमें कोई तो ऐसी बात थी, जो दुनिया उनकी दीवानी थी। जो बात मैंने महसूस की, वह थी उनके चेहरे पर हमेशा खिली रहने वाली मुस्कान। उनके होंठ ही नहीं, बल्कि उनकी आंखें, उनका चेहरा और यहां तक कि उनकी पूरी देह मुस्कराती हुई नजर आती थी।
मैं यहां जिस महिला की चर्चा कर रहा हूं, वह थीं प्रिंसेस डायना, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं। मोनालिसा ने अगर यह सिद्ध किया कि मुस्कान इस दुनिया का सबसे बड़ा रहस्य है तो प्रिंसेज डायना ने सिद्ध किया कि मुस्कान दुनिया का सबसे बड़ा सौंदर्य। भारत में मधुबाला, राजीव गांधी और अक्षय खन्ना जैसी शख्सियतों ने अपनी अनूठी मुस्कान के जरिए इस संदेश को आगे बढ़ाया है।
मुस्कराहट इस धरती पर ईश्वर द्वारा किए गए हस्ताक्षर हैं। यह इस बात का प्रमाण है कि ईश्वर हमारे अंदर मौजूद है। इसे लाएं क्योंकि यह है। इसे बांटें, क्योंकि यह बांटने से बढ़ती है। यह दूसरों को हर क्षण दिया जाने वाला एक ऐसा अनूठा उपहार है, जिसके लिए कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ता, जबकि इसके बदले में मिलता बहुत कुछ है। क्या इससे भी ज्यादा फायदे का कोई दूसरा सौदा हो सकता है?

गुरुवार, 28 मई 2009

लीडर होने के आधारभूत गुण

उनकी उम्र बयालीस साल की हो गई थी, लेकिन वे अभी तक अपना बिजनेस जमा नहीं पाए थे। चूंकि वे मेरे चाचा थे, इसलिए मैंने उनके लिए मशीनों में इस्तेमाल होने वाली बेल्ट की एजेंसी के बारे में बात की। एजेंसी तकनीकी सामान की थी, इसलिए जरूरी पाया गया कि सेल्समैन को एक महीने के लिए फैक्ट्री में रखकर प्रशिक्षित किया जाए। मैंने चाचाजी से कहा कि चूंकि यह बिजनेस उनके लिए एकदम नया है, इसलिए बेहतर होगा कि वे खुद भी उसकी थोड़ी-बहुत ट्रेनिंग ले लें। वे मेरी इस सलाह पर भड़कते हुए बोले, ‘जहां मेरा नौकर ट्रेनिंग ले रहा हो, वहां मैं भी ट्रेनिंग कैसे ले सकता हूं?’दूसरी घटना रोमानिया की है। भारत और रोमानिया के राष्ट्रपति के बीच आधिकारिक स्तर की बातचीत चल रही थी और हम कई लोग बाहर के कमरे में बैठे हुए बातचीत खत्म होने का इंतजार कर रहे थे। बातचीत के समाप्त होते ही रोमानिया के विदेश मंत्री हमारे कमरे में आए। उन्होंने हम सभी से पूरी गर्मजोशी से हाथ मिलाया, लेकिन हम सबके लिए चौंकाने वाली बात यह थी कि उन्होंने उस कमरे का दरवाजा खोलने वाले संतरी से भी उतनी ही गर्मजोशी से हाथ मिलाया।इन दोनों घटनाओं के आधार पर इस सवाल का उत्तर आसानी से मिल सकता है कि इनमें लीडर बनने लायक कौन है-मेरे चाचाजी या रोमानिया के विदेश मंत्री? हम भारतीयों की चेतना अभी भी सामंतवादी सोच की शिकार है। जबकि नेतृत्व के लिए सबसे अधिक जरूरत इस बात की होती है कि आप अपना कितना अधिक से अधिक सरलीकरण कर सकते हैं। आप इतने अधिक साधारण बन जाएं कि साधारण से साधारण आदमी भी आपको अपना समझने लगे, तभी आप नेतृत्व करने की विशिष्टता को हासिल कर सकते हैं और यही सच्ची लीडरशिप है।

मंगलवार, 19 मई 2009

‘जिन्दगी एक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या होगा किसने जाना’


मंथन के मोती, भाग-३ 
             ‘मंथन के मोतियों’ की थैली से एक चमकदार मोती लेकर मैं यानी डॉ॰ विजय अग्रवाल आप सबकी सेवा में आज फिर से उपस्थित हूँ। मुझे अपना आशीर्वाद दें और मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
             आपने ‘अंदाज’ फिल्म का यह गीत कभी-न-कभी जरूर सुना होगा कि ‘जिन्दगी एक सफर है सुहाना, यहाँ कल क्या होगा किसने जाना।’ यह बहुत ही प्यारा और बहुत ही फिलासॉफीकल गीत है। इसमें हमारे जीवन के बहुत महत्त्वपूर्ण संदेशों को पिरोया गया है। इसकी पहली ही लाईन में दो बहुत बड़ी बातें कही गई हैं। पहली बात तो यह कि जिन्दगी का जो सफर है, वह सुहाना होता है, डरावना नहीं। जिन्दगी जो भी है और जैसी भी है, ऐसी है जिसे प्यार किया जाना चाहिए और भरपूर प्यार किया जाना चाहिए। जो कुछ भी हमारे सामने आता है, उसे खुले मन से स्वीकार किया जाना चाहिए। 
            दूसरी जोरदार बात यह कही गई है कि लाईफ अनप्रेडिक्टेबल है। इसकी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। यह नहीं बताया जा सकता कि कल क्या होगा। यानी कि यदि हम इन दोनों ही बातों को जोड़ दें, तो यह एक ऐसी सुहावनी यात्रा बन जाएगी, जिसके बारे में हमें पता ही नहीं। अगला कौन-सा स्टेशन आने वाला है, स्टेशन आने वाला है भी या नहीं और हम यह भी नहीं जानते कि यह गाड़ी जाकर रुकेगी कहाँ।
आप सोचकर देखें कि यदि हम सचमुच ऐसी गाड़ी में बैठ जाएं, जिसके जाने के बारे में ही कुछ पता न हो, तो हमारे लिए कितनी मुश्किल हो जाएगी। लेकिन जीवन की गाड़ी एक ऐसी ही गाड़ी है, जिसके पहुँचने का ठौर-ठिकाना नहीं होने के बाद भी हमें यह यात्रा सुख देती है और यह सुख सही अर्थों में न जानने का सुख है। कहीं भी न पहुँचने का सुख है।
             आप स्वयं अपने जीवन की यात्रा के बारे में सोचकर देखिए कि आपने उसकी शुरुआत कैसे की थी और आज आप कहाँ हैं? आज आप जहाँ हैं, क्या शुरूआत करने वाले दिन आप जानते थे कि यहाँ पहुँच जाएँगे। यदि आपका उत्तर यह है कि ‘‘मैं नहीं जानता था’’, तो यही न जानना ही तो यही अननोननेस ही तो जिन्दगी की सबसे बड़ी खूबसूरती है।
            तो आइए, यहाँ हम जानते हैं कुछ ऐसे लोगों की जीवन-यात्रा के बारे में, जो चले तो कहीं के लिए थे, लेकिन पहुँच कहीं और गए।
१. हीरो अक्षय कुमार बैंकाक में कूक हुआ करते थे, और मार्शल आर्ट के शौक के कारण बालीवुड में आ गए.
२. गायक शंकर महादेवन साफ्टवेयर इंजीनियर थे, और अमेरीका की ओरेकल कम्पनी में काम करते थे।
३. फिल्मकार गुरूदत्त टेलीफोन आपरेटर थे।
४. ‘काँटा लगा’ गर्ल शेफाली जरीवाला इन्फार्मेशन टेक्नोलॉजी इंजीनियर हैं।
५. अमीषा पटेल ने एम.ए.अर्थशास्त्र में गोल्ड मैडल लिया है।
६. ‘मुगल-ए-आजम’ फेम जनाब आसिफ दर्जी थे।
७. लता मंगेशकर को पाश्र्व गायन का पहला मौका देने वाले संगीतकार गुलाम हैदर की घड़ियों की   मरम्मत की दुकान थी।
८. सुनील दत्त रेडियो सिलोन में अनाउंसर एवं प्रोग्राम-कम्पोजर थे।
९. म.प्र. के मुख्यमंत्री प्रकाशचन्द सेठी एक मिल में क्लर्क थे।
         क्या आपको आश्चर्य नहीं हुआ इन सबके अतीत को जानकर? लेकिन यहाँ जो सबसे ध्यान देने की बात है, वह यह कि ये सब ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि इन्होंने अपने-आपको अपने वर्तमान का गुलाम नहीं बनाया। ये अपने जीवन यात्रा को एक सुखद यात्रा मानते हुए, एक अनजानी यात्रा मानते हुए लगातार बेहतरी के लिए काम करते रहे। इन्होंने अपने जीवन में जोखिम मोल लिया। इन लोगों को अपने-आप पर भरोसा था कि हम कुछ अच्छा कर लेंगे। साथ ही इनमें यह साहस भी था कि यदि गिर भी गए, तो कोई बात नहीं। फिर से खड़े हो जाएंगे और दौड़ना शुरू कर देंगे। जिन्दगी ऐसे ही लोगों को सलाम करती है, और ऐसे ही लोगों के लिए सही अर्थों में जिन्दगी एक सुहाना सफर बन जाती है।
           तो आप भी बनायें अपने जीवन को सुहाना। यह सुहाना बने, इसी कामना के साथ मैं अनुमति चाहता हूँ। साथ ही यह भी चाहता हूँ कि आप हमें बतायें कि हम आपके लिए और क्या कर सकते हैं।
                                                                                                                                 डॉ॰ विजय अग्रवाल

रविवार, 17 मई 2009

दूसरों के सुख में अपना सुख ढूंढें

 भाग-2, मंथन के मोती
क्या आपने कभी सोचा है कि हम सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए क्यों हैं। आम तौर पर तो यही कहा जाता है कि हम एक दूसरे से इसलिए जुड़े हुए हैं, क्योंकि हम एक-दूसरे की जरूरत होते हैं। हम एक-दूसरे से इसलिए जुड़े हुए हैं, क्योंकि हम एक-दूसरे को चाहते हैं। लेकिन यदि इसी बात को थोड़ा-सा फैलाकर थोड़े से विस्तार के साथ कहा जाए, तो हमारा उत्तर यह होगा कि हम एक-दूसरे से इसलिए जुड़े हुए हैं, क्योंकि हमारे पास संवेदनाएँ हैं। मुझे लगता है कि यह उत्तर अधिक सटीक उत्तर होगा।
संवेदना का मतलब है-समान वेदना का अनुभव करना। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ समान सुख के अनुभव की बात नहीं कही गई है, बल्कि समान वेदना के अनुभव की बात कही गई है। हो सकता है कि मेरा पड़ोसी जिस सुख का अनुभव कर रहा हो, मैं उस सुख का अनुभव नहीं कर पा रहा हूँ। हम दोनों के अनुभव में फर्क हो सकता है। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि यदि पड़ोसी दुःख का अनुभव कर रहा है, वेदना का अनुभव कर रहा है, तो मुझे वेदना का अनुभव न हो।
सुख हमें भले ही न जोड़ें, लेकिन वेदना हमें जोड़ती है। इसलिए तो संवेदना को इतना बड़ा गुण माना गया है। यदि यही नहीं रह गया, तो फिर हमारे पास रह ही क्या जाएगा। मनुष्य ही तो एक ऐसा प्राणी है, जो अपने ही दुःख से नहीं, बल्कि दूसरों के दुःख से भी दुःखी होता है। यही कारण है कि वह केवल अपने ही दुःखों को दूर करने में उसे नहीं लगा रहना चाहिए, बल्कि उसे दूसरों के दुःखों को भी दूर करने की हरसंभव कोशिश करना चाहिए। इसे ही हमारे यहाँ सेवा करना कहा गया है, जिसे ईश्वर की आराधना का दर्जा दिया गया है। दुखियों की सेवा यानी कि ईश्वर की सेवा।
इसका एक बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष जो है-वह यह है कि जिन कारणों से हमें दुःख होता है, उन्हीं कारणों को हम जन्म न दें ताकि अन्य लोगों को दुःख न हो। बल्कि इससे भी बढ़कर यह कि यदि हमें मौका मिले, तो हम ऐसे लोगों को सुख देने की कोशिश करें। हम अपनी संवेदनाओं को इतना फैला दें, इतना बढ़ा दें कि वह हर जीव-जगत तक फैल जाए।
तो आइये, इससे जुडी एक कहानी जानतें हैं।

विख्यात लेखक एच.जी.वेल्स अपने मकान की तीसरी मंजिल के एक मामूली से कमरे में रहा करते थे। एक बार उनके मित्र ने पूछा-‘‘आप साधारण कमरे में क्यों रहते है?  इस मकान की निचली मंजिल पर तो इससे अधिक आरामदायक व सुंदर कमरे हैं। आप उनमें से कोई चुन सकते हैं?’’ ‘‘उन कमरों में मेरे नौकर रहते हैं।’’ वेल्स ने उत्तर दिया। ‘‘आपने नौकरों को इतने शानदार कमरे क्यों दे रखे हैं, जबकि लोग आमतौर पर नौकरों को घर का सबसे खराब कमरा देते हैं।’’ मित्र ने पूछा। वेल्स ने गंभीरता से कहा-‘‘मैंने जानबूझकर ऐसा किया है, क्योंकि कभी मेरी माँ लंदन के एक घर की नौकरानी थी।’’

सचमुच कितनी अद्भुत और रोमांचित कर देने वाली कहानी है यह। लेखक वेल्स ने माँ के प्रति अपनी संवेदना को इतना फैला दिया कि उसे अपनी घर की नौकरानी में माँ दिखाई देने लगी। उनके लिए तो सुख की परिभाषा तक बदल गई। उन्होंने दूसरे के सुख में ही अपने सुख को देखना शुरू कर दिया। जब हम दूसरों के सुख में अपना सुख ढूँढने लगते हैं, उसी क्षण समझ लेना चाहिए कि हमें सच्चा सुख मिल गया है। उसी क्षण हमें यह जान लेना चाहिए कि ईश्वर का निवास हमारे हृदय में हो गया है। हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि हम सही अर्थों में अब इंसान बन गए हैं। इंसान यानी कि ईसा के सच्चे शिष्य।
                                                                                                                                        डॉ० विजय अग्रवाल

शुक्रवार, 15 मई 2009

मंथन के मोती, भाग - 1




       मित्रों आज मैं एक ऐसे विषय पर लिख रहा हूँ, जो हम सभी के जीवन में बहुत अहम स्थान रखता है। साथ ही यह विषय ऐसा है, जिसका अनुभव हम सभी कभी-न-कभी करते ही हैं। खूब करते हैं और इसलिए इसे अच्छी तरह जानते भी हैं। यह विषय है-प्रेम का विषय। इसी प्रेम को कबीरदास ने ‘ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय’ कहकर ज्ञान के सबसे ऊँचे शिखर पर रख दिया था।
    प्रेम इस ब्रह्माण्ड को, इस संसार को और हम सभी को एक-दूसरे से जोड़ने वाला सबसे प्रमुख तत्व है। अभी आप जो यह कार्यक्रम देख रहे हैं, वह भी इसलिए देख रहे हैं, क्योंकि आपको यह अच्छा लगता है और हमें वही चीज़ अच्छी लगती है, जिससे हमें प्रेम होता है। इसलिए प्रेम को एक ऐसा जोड़ने वाला तत्व माना गया है, जो रहता तो हर स्थान पर है, भले ही दिखाई कहीं भी न दे।
     अधिकांश लोग प्रेम को केवल रोमांटिक प्रेम के रूप में लेते हैं। जबकि इसके कई-कई रूप होते हैं। माँ-बेटे का प्रेम, पति-पत्नी का प्रेम, मित्रों का आपस में प्रेम, गुरू-शिष्य का प्रेम, ईश्वर से प्रेम, देश-प्रेम, अपने काम से प्रेम, अपने-आपसे प्रेम तथा न जाने और भी कौन-कौन के बीच और किस-किस तरह के प्रेम। एक क्षण के लिए आप कल्पना करके देखिए कि यदि प्रेम के इस तत्व को इस पृथ्वी से गायब कर दिया जाए, तो क्या होगा?
प्रेम जोड़ने वाली शक्ति तो है ही। यह काम कराने वाली शक्ति भी है। बल्कि यह कहना गलत नहीं होगा कि यह एक ऐसी शक्ति है, जो यदि एक बार हमारे अन्दर आ जाए, तो बड़े से बड़े काम भी हमें बौने नज़र आने लगते हैं। यह वह आग होती है, जो जब एक बार धधक जाती है, तो सोने की लंका तक को पिघला सकती है। इसमें हमारे अन्दर की सोयी हुई शक्ति और अनजानी क्षमताओं को जागृत करने की अद्भुत क्षमता होती है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि दो तरह के प्रेम सबसे अधिक अनुभव किए गए हैं और हमारे यहाँ इनकी सबसे अधिक चर्चा भी हुई है। ये दो तरह के प्रेम हैं-ईश्वर के प्रति प्रेम तथा देह के प्रति प्रेम। तो आइए, अब हम यहाँ देह के प्रति एक ऐसे प्रेम की अद्भुत क्षमता की एक कहानी सुनते हैं, जिसने मानव कल्याण का एक अद्भुत संसार हमारे लिए रच दिया-
         
 इंसुलिन के आविष्कारक डॉ॰ फ्रेडरिक बैंटिग बचपन में कनाड़ा के एक फार्म पर रहा करते थे। जेनी नाम की एक हम उम्र लड़की उनकी अभिन्न मित्र थी। जेनी उनके साथ हॉकी और बेसबाल खेलती, स्केटिंग करती, दौड़ लगाती और उनके साथ ही पेड़ों पर चढ़ा करती थी। फिर गर्मियों में अचानक एक दिन जेनी खेलने नहीं आई। पता लगा कि मधुमेह की बीमारी के कारण उसकी मृत्यु हो गई है। फ्रेडरिक इस हादसे को कभी भूल नहीं पाए। पेशे के लिए उन्होंने चिकित्सा विज्ञान को चुना। आज लाखों मधुमेह रोगी सिर्फ इसलिए जिन्दा हैं, क्योंकि फ्रेडरिक को जेनी से प्रेम था।
     तो देखा आपने कि किस तरह जेनी के प्रति प्रेम की भावना ने हम सबके लिए कितने महान आविष्कार को जन्म दे दिया।
     प्रिय पाठकों  यही प्रेम सच्चा प्रेम है और यही प्रेम की सबसे बड़ी शक्ति भी है। इस प्रेम का, इस महान और उदात्त भावना का इस बात से कुछ भी लेना-देना नहीं होता कि जिससे आप प्रेम कर रहे हैं, वह आपके पास है या नहीं। इसका तो केवल इस बात से लेना-देना रहता है कि प्रेम की भावना आपके पास है। फिर चाहे जिससे आप प्रेम कर रहे थे, वह आपके पास भले ही न हो। यहाँ तक कि जिससे आप प्रेम कर रहे थे, भले ही वह भी आपसे प्रेम न करे। सबसे बड़ी बात होती है-प्रेम की भावना का होना और यदि यह सच्ची और पवित्र है, तो यह आपसे कुछ भी करा सकती है, यहाँ तक कि वह भी जिसकी आपने अभी तक कल्पना भी नहीं की थी,
अब बस इतना ही। ब्लॉग पर टिपण्णी कर अपने विचारों से जरुर अवगत कराएँ।
- डॉ॰ विजय अग्रवाल

गुरुवार, 14 मई 2009

OUR’S IS A SIMPLE LIFE

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Our body helps us realize the value of life.

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                       How simple is our life! How easy are our life’s calculations that everything happens by itself – our breathing, the opening and closing of our eyes and every single movement of our body, which is mandatory for the existence of our life. Everything is automatic. Even our body has expanded its potential according to our necessity. It has kept us safe within a hollow enclosure so as to protect from injury in case of an impact. Though our nose and ears have been placed in the outer part of our body, they have been made so flexible so that they don’t break due to injury; and even if it is injured it doesn’t hinder our life’s breathing activity. It keeps going relentlessly. The Brain, which is pivotal for our life is safely covered in a hard shell, the skull. We don’t need two kidneys, but nature has provided us with two, so that even if one fails the other will keep working. What a marvelous creation is our body – by nature! Complicated in reality, but flexible.

                   This much, then is about our body. But do we ever say that we live our body. We always say that we live our life. Through this one can conclude that even after the death of our body our life continues. This journey is a vast and endless one, which never stops. And it can never stop - it cannot be stopped. Otherwise the existence of our body is futile. If our body exists for the sake of body alone then it will lose its value. Its gets its value only because through our body we live our life and life has a special purpose. That means that our body helps us realize the value of life. And this is where all the complications begin. And this easy and smooth life becomes complicated and entangled, and becomes a strange maze. Our life is made by our society. The moment we make our body become a part of the society we are bound by the substances and values of the society. This is somewhat similar to throwing a fishing net on ourselves. The net is – of validity, of tradition, of religion, custom, of prosperity, values, culture, and behavior, of law and of many other unknown things.

 

                   Our body is one, our life is one and the burden loaded on it is many. This straight line gets entangled between these crooked lines and loses its straightness and from this point starts the hurdles of life, a whole world of tensions, worries, egoism and many other things. All those things that the human brain can think and the body can do. The moment we get caught in this whirlwind through our thoughts, we sign our death certificate well in advance. Our patience, our independence and all our self-respect starts feeling choked. The moment when our mouth tries to open to shout, the very moment our mouth is forcefully closed or labeled as insane. And if all this doesn’t suffice then we are choked to death. A shrill shout springs from our throat to be silenced forever. And this easy and straight body ends.

 

                In reality, our mind sometimes is terrorized and is full of fear of the thought, whether our life should be smooth or complicated. The life of a professional is a complicated one. If law wasn’t so complicated then there would have been no necessity for lawyers. And this is exactly what we are doing. First, we complicate our lives and then to solve it we form different types of rules and regulations. When we start implementing using these rules and regulations then some more complications crop up. We formulate some more rules and regulations to solve these problems. The most enjoyable and witty moment is created when we realize that the rules and regulations that we made are very much similar to that one made previously or else are totally contradictory. Both these situations are proof of our defeat. If the later rules and regulations are similar to the one made earlier then why did we put in all this effort. And if they are in contradiction to the earlier ones then there is a definite war between us and our tradition. And this war crushes within it, our pitiable, straight body.

 

                 Is there any solution for maintaining the innocence of our body as - ‘in innocence

lies happiness’.

 

Germany’s famous art director Frints Benvitage met with an accident. After treating him the doctor told him, “Sorry Frints! I couldn’t save one of your eye.” Frints replied, “Thank You doctor, you could atleast save one eye.”     


बुधवार, 13 मई 2009

अपनी कमजोरियों से रू-ब-रू हों

वह मुझसे अनुरोध कर रहा था कि उसका ट्रांसफर किसी दूसरी जगह कर दिया जाए, क्योंकि दफ्तर में उसकी किसी से पट नहीं रही है। मैंने उसके अनुरोध को स्वीकार कर लिया। अभी एक साल होने में कुछ दिन बचे थे कि वह फिर से उसी अनुरोध के साथ मेरे सामने उपस्थित था। मैंने इस बार भी उसकी बात मान ली। लेकिन जब वह तीसरी बार इसी उद्देश्य से आया, तो मैंने केवल उसके अनुरोध को ठुकरा दिया, बल्कि उसे डांट भी लगाई। असल में उसकी असली समस्या यह थी कि वह दूसरों को अपनी समस्या का कारण समझता था, जबकि सचाई यह थी कि वह खुद में ही एक समस्या था।

प्राचीन यूनान में जितने भी नाटक लिखे गए, ज्यादातर त्रासद नाटक थे। उनका समापन दुख में होता है, असफलताओं में होता है। भले ही हम उसके नायक के इस दुख और असफलता के लिए भाग्य को, समाज को, मित्रों को या फिर अन्य किसी को भी जिम्मेदार ठहराएं, लेकिन सचाई यही रहती है कि उस दुख और असफलता के कारण उस नायक के अपने व्यक्तित्व और चरित्र में ही निहित रहते हैं।

जिस दिन भी जिंदगी का यह सरल, सीधा और सच्च फलसफा समझ में जाता है, उसी दिन से जिंदगी में एक क्रांतिकारी बदलाव की शुरुआत हो जाती है।

वैसे नियम भी यही है कि जब हम दूसरों पर दोष लगाने के लिए अपनी तर्जनी को उसकी ओर उठाते हैं, तो नीचे की अंगुली अपने आप हमारे सीने की ओर उठ जाती है। दुर्भाग्य यह है कि नीचे रहने के कारण हम उसे देख नहीं पाते। लेकिन यदि बिल्ली अपनी आंखें बंद करके दूध पीने लगे, तो लोग उसे दूध पीते हुए नहीं देख सकेंगे? सच कड़वा होता है, लेकिन उसे जान लेने के बाद सच मीठा बन जाता है। अपनी कमजोरियों को जानना, सच को जानकर अपनी जिंदगी को खुशगवार और सफल बनाना है।

मंगलवार, 12 मई 2009

सफलता चाहिए तो समय की कद्र करो

यह लगभग 12 साल पुरानी किंतु हमेशा ताजा रहने वाली बात है। तब मैंने एक जरूरी काम से श्री केके बिड़लाजी से समय चाहने के लिए उन्हें फोन किया था। उन्होंने कहा ‘पांच बजे आ जाओ।’ इससे पहले कि इस सफलता की उत्तेजना से असंतुलित हो मैं फोन का रिसीवर रखता, उधर से आई आवाज ने मुझे चौंका दिया, ‘डॉ. अग्रवाल क्या आप जानते हैं कि पांच बजे का मतलब क्या होता है?’

पता नहीं किस ईश्वरीय प्रेरणा ने उस समय मेरे मुंह से यह उत्तर कहलवाया ‘यस सर, मैं जानता हूं कि पांच बजे का मतलब होता है चार बजकर उनसठ मिनट और साठ सैकंड।’ उन्होंने ‘आ जाओ’ कहकर फोन रख दिया। मैं समझ गया कि वहां मैं जिस काम से जा रहा हूं वह काम हो जाएगा, बशर्ते मैं सही समय पर पहुंच जाऊं। मैं वहां सही समय पर पहुंचा और वही हुआ जिसकी मैं उम्मीद लगाए हुए था।

इस छोटी सी किंतु बड़ी घटना ने मेरी चेतना में इस सत्य का बीज डाल दिया कि समय केवल समय भर नहीं होता बल्कि इससे कहीं अधिक यह हमारा चरित्र होता है, हमारी साख होती है। यह अनुशासन के प्रति हमारे सम्मान की भावना तथा इन सबसे अधिक अपने द्वारा दूसरे को दिए गए वचन के प्रति हमारी वफादारी का प्रमाण होता है।

सोचकर देखिए कि यदि मैं अपने ही द्वारा दिए गए समय संबंधी वायदे को निभाने में झूठा सिद्ध हो रहा हूं, तो दूसरों को मेरे द्वारा कही गई ढेर सारी बातों तथा किए गए ढेर सारे वायदों पर यकीन क्यों करना चाहिए। वास्तव में देरी से पहुंचकर हम सामने वाले का न केवल अपमान करते हैं बल्कि वहां जाने से होने वाले अपने लाभ को भी आधा कर देते हैं। दुर्भाग्य यह है कि ये दोनों हमें साफ तौर पर दिखाई नहीं देते।

शनिवार, 9 मई 2009

वैश्वीकरण के दौर में धन की भारतीय अवधारणा



 पिछले लगभग सात सालों से धन से जुड़ा यह जुमला बहुत लोकप्रिय हुआ है कि ‘‘कसम से रूपया खुदा तो नहीं है, लेकिन खुदा से कम भी नहीं है।’’ इसकी लोकप्रियता केवल इसके कहे जाने के अंदाज में ही नहीं है, बल्कि इसमें भी है कि इसी दौरान भारतीय जनचेतना में भी एक जबर्दस्त बदलाव आया है। यह बदलाव खुले जीवन-मूल्यों के स्वीकार किये जाने से कहीं अधिक धन को खुदा मान लेने में है। ऐसा नहीं है कि व्यावहारिक स्तर पर इससे पहले हम धन का तिरस्कार करते थे। वह तब भी महत्त्वपूर्ण था, और काफी महत्त्वपूर्ण था। लेकिन उसके साथ दो बातें अभी से अलग थीं। एक तो यह कि वह महत्त्वपूर्ण तो था लेकिन आज की तरह सब कुछ नहीं था। दूसरा यह कि उसकी इस महत्ता को महसूस तो सभी करते थे, लेकिन आज की तरह ताल ठोंककर कहने वाले इक्के-दुक्के ही होते थे। जो कुछ भी था, दबी जुबान में था। नये उदारवाद के इस अंधड़ ने पुरानी कुटिया को उजाड़कर उसके स्थान पर नये आशियाने की जो संभावनायें पैदा की, उसमें धन सचमुच में खुदा क्या, बल्कि खुदा का भी खुदा बन बैठा है।
     मैं यहाँ आपसे यह कहने की इजाजत चाहूँगा कि आप मेरी इन बातों का अर्थ यह कतई न लगायें कि मैं धन के विरोध में खड़ा हुआ व्यक्ति हूँ। स्वयं भारतीय दर्शन और जीवन ने कभी भी इसका घोर विरोध नहीं किया है। यदि ऐसा होता, तो वह कभी भी जीवन के चार लक्ष्यों में ‘अर्थ’ को (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) प्रथम न मानता, और उसे मोक्ष प्राप्ति का प्रस्थान बिन्दु नहीं कहता। यदि भारतीय दर्शन इसका विरोधी होता, तो इसके राम और कृष्ण जैसे अवतार तथा बुद्ध और महावीर जैसे दैव पुरुष राजघरानों के नहीं होते। यदि हम धन के विरोधी होते, तो हमने समुद्र मंथन में से प्राप्त देवी को धन की देवी कहकर उन्हें परम आत्मा विष्णु की पत्नी का दर्जा देकर पूजा योग्य नहीं बनाया होता।
     दरअसल इस तरह की गलतफहमी वहाँ पैदा हो जाती है, जब बात दान की, त्याग की या संन्यास की आती है। लोग इसे धन का विरोध करना मान बैठते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि जब तक धन नहीं होगा, तब तक भला दान और त्याग संभव ही कैसे है। जाहिर है कि यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, लेकिन स्पष्ट निर्देश यही है कि ‘‘पहले अर्जन करो। फिर उसे छोड़ दो। उससे जुडे़ मत रहो।’’ इस निर्देश का अधिकांश लोग अर्थ यह लगा लेते हैं कि ‘‘जब छोड़ना ही है, तो फिर जोड़ना क्यों?’’ जबकि समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों में से एक रत्न लक्ष्मी जी ने अपने सम्मुख हाथ जोड़कर याचक बने समस्त सुर और असुरों के सामने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘‘मैं वहाँ रहूँगी, जहाँ पुरुषार्थ रहेगा।’’
     बहुत प्यारा और अर्थयुक्त शब्द है-पुरुषार्थ। जब व्यक्ति कर्म करता है, तब वह ऐसा करके अपने पुरुष होने को अर्थ देता है। यानी कि कर्म ही पुरुषार्थ है। बात साफ है कि जहाँ कर्म होगा, वहाँ लक्ष्मी भी होगी। यह देवी लक्ष्मी द्वारा, जी हाँ, धन की देवी लक्ष्मी द्वारा इस पृथ्वी के मानव समुदाय को दी गई आश्वस्ति है कि ‘‘तुम कर्म करो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।’’ मुझे लगता है कि हम सभी को उनके इस आश्वासन पर विश्वास करना ही चाहिए। इस तरीके से प्राप्त किया गया धन अर्जित धन कहलाता है। यह धन का अर्जन करना है।
इसका दूसरा रूप सर्जन का रूप है। इसमें हम कुछ करते नहीं है, बल्कि यह हमारे पास आ जाता है। अपने आप आ जाता है। हम उम्मीद नहीं करते कि ऐसा होगा, लेकिन हो जाता है। किसी को गड़ा हुआ धन मिल जाता है, तो किसी को किसी की वसीयत से यूं ही मिल जाता है। किसी की लाटरी खुल जाती है, तो किसी की ज़मीन की कीमत देखते-ही-देखते आसमान छूने लगती है।
     लेकिन, जो मजा अर्जित धन में होता है, जो सुख इसमें मिलता है, वह सृजित धन में नहीं, क्योंकि इससे हमें कुछ रचने का, कुछ करने का सुख नहीं मिल पाता। हमारे मन के किसी कोने में छोटी सी ही सही, लेकिन एक गाँठ पड़ जाती है कि ‘‘इसके लिये हमने तो कुछ किया ही नहीं है। यह तो बस हो गया है।’’ यह कुछ इसी तरह की जीत जैसी है, जैसे कि वाकओवर से किसी मैच को जीत जाना। जीत तो गए। कप भी मिल गया। लेकिन जीतने की खुशी नहीं मिली। मैं समझता हूँ कि जीतने से ज्यादा कीमती है, उससे मिलने वाली खुशी। और मित्रो, विश्वास कीजिए कि खुशी केवल जीतने में ही नहीं मिलती, बल्कि हारने में भी मिलती है, बशर्ते कि यह हार कोशिश करने के बावजूद मिली हुई हार हो।
     मुझे लगता है कि शायद इसीलिए हमारे दार्शनिकों और भाषाशास्त्रियोँ ने धन को ‘अर्थ’ भी कहा है। इसका अर्थ ही है कि धन का अपना एक अर्थ होता है, और इसे अर्थ मिलता है इसकी उपयोगिता से। जब हम इसे खर्च करते हैं, तभी धन की सार्थकता सिद्ध होती है। इस प्रकार धन साधन है, अपने आप में साध्य नहीं।
    दुनिया में धन को लेकर जब-जब भी किसी तरह के संकट आए हैं, वे आए ही तभी हैं, जब इसे साधन न समझकर साध्य माना गया है, पड़ाव न मानकर मंजिल मान लिया गया। यह अपने आप में खुदा बन गया।
वस्तुतः समाज में जब भी धन के प्रति इस तरह का गलत दृष्टिकोण प्रचलित होता है, तब-तब साध्य और साधन के बीच का अंतर सिमटकर दोनों एक हो जाते हैं। किसी भी तरह से साध्य को पा लेना ही जीवन का लक्ष्य हो जाता है। यदि हम सत्यम के मामले को इस कसौटी पर परखेंगे, तो हमें इस बात पर और भी पक्का यकीन हो जायेगा।
धैर्य की कमी के कारण, जल्दी से जल्दी अरबपति बन जाने की अतृप्त लालसा के कारण लोग धन कमाने के उन सही रास्तों से भटक जाते हैं, जो हमारे पूर्वजों ने और हमारे ग्रन्थों ने हमें दिखाये हैं। ये वे सही रास्तें है, जो चमत्कार तो नहीं करते, लेकिन आपको इस बात की गारन्टी जरूर देते हैं कि आप देर-सबेर अपनी मंजिल तक पहुँच जरूर जायेंगे। हाँ, एक बात और। वह यह कि पहुँच ही नहीं जायेंगे, बल्कि उस मंजिल पर लम्बे समय तक टिके भी रहेंगे। जिन्हें हम खानदानी रईस कहते हैं, वे इसी रास्ते पर चलकर यहाँ तक पहुँचते हैं। इनके लिए कोई शार्टकट नहीं होता। अगर होगा भी, तो वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि वे प्रकृति के इस अटल नियम को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि जो चीज़ जितनी तेज़ी से बढ़ती है, उसका पतन भी उतनी ही तेजी से होता है। केले का पौधा धड़ाधड़ बढ़ता जाता है। दो साल में ही वह दस-बारह फुट का हो जाता है। लेकिन उसकी ज़िन्दगी भी लगभग इतनी ही होती है। जबकि दो साल में पता ही नहीं चलता कि बरगद का पौधा बढ़ा भी है या नहीं। लेकिन यह रहता है दो-तीन सौ साल तक। इसलिये ये खानदानी रईस बरगद बनने को महत्व देते हैं, बजाय केला की गाछ बनने के।
एक बड़े मज़े की और बड़े गौर करने की बात यह भी है कि भारतीय दर्शन ने देवी लक्ष्मी के दो वाहन निर्धारित किये हैं। शायद ही किसी अन्य देव या देवी के दो वाहन हों, सिवाय लक्ष्मी के। तो इसके पीछे भी कोई न कोई कारण तो रहा ही होगा।
      लक्ष्मी के वाहन हैं-उल्लू और गरूड़। जब धन कमाने के हमारे साधन सही, पवित्र और सुथरे होते हैं, तो जो लक्ष्मी हमारे घर में आती है, वे गरूड़ पर सवार होकर आती है। गरूड़ एक शुभ पक्षी है। शुभ पक्षी के आने से सब कुछ शुभ ही शुभ होता है।
       जबकि यदि धन गलत तरीके से कमाया गया, तो लक्ष्मी तो आती है, किन्तु उल्लू पर सवार होकर। उल्लू यानी कि मूर्ख। यह धन हमें यही बनाता है। उल्लू यानी कि दिन में न देख पाने वाला पक्षी। यानी कि ऐसे धन का उपयोग आप खुले रूप में नहीं कर सकते।
      मुझे लगता है कि भारतीय दर्शन में धन के प्रति जो अवधारणा व्यक्त की गई है, वह अदभुत है, सार्वकालिक है, और सार्वभौमिक भी है। यदि सचमुच धन का सुखभोग करना है, तो हमें केवल लाभ के सिद्धान्त को त्यागकर शुभ और लाभ के दर्शन को अपनाना होगा। और यही भारतीय मनीषा है।
(डॉ॰ विजय अग्रवाल)

शुक्रवार, 8 मई 2009

व्यवहार का एक चमत्कारिक रूप यह भी

जब हमें किसी से कोई शिकायत होती है या हम उससे किसी बात पर नाराज होते हैं, तो जैसे ही वह हमारे सामने आता है, हम उस पर फट पड़ते हैं। इससे पहले कि वह कोई कैफियत दे, हम अपना गुबार निकालकर हल्के होने की जल्दबाजी दिखाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। और सच पूछिए तो यह एक ऐसी शुरुआत होती है, जो शुरू में ही गड़बड़ा गई है। अब आप उससे किसी अच्छे की उम्मीद नहीं कर सकते। यह तो कुछ उसी तरह से हुआ कि आप गाड़ी चलाने की शुरुआत फोर्थ गेयर से कर रहे हैं।

इसी की जगह यदि हम अपनी नाराजगी की गाड़ी की शुरुआत एक नंबर गेयर से करने की आदत बना लें, तो हमारी समस्याओं का समाधान चमत्कारिक रूप में होने लगता है। मैं इस बारे में अपने कुछ तजुर्बे आप तक पहुंचाना चाहूंगा

1. एक साइकिल सवार ने जब पैदल जा रहे मुझ पर टक्कर मार दी, तो मैंने नाराज होने के बजाय उससेसॉरीकहा। वह भौचक्का होकर मुझे देखने लगा।

2. मैं टिकट लेने के लिए लाइन में लगा हुआ था। एक सूट-बूट वाले जनाब लाइन के बीच में घुसने की जुगाड़ में थे। मैंने उन्हें अपने आगे खड़े होने के लिए आमंत्रित किया। वे पानी-पानी होते हुए से दिखे। 

3. वह नौ दिनों बाद ऑफिस आया था और वह भी बिना छुट्टी लिए। मैंने जब उसे इत्मीनान से बैठाकर बड़े सहज भाव से इतने दिनों तक उसके आने का कारण पूछा, तो उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसकी आंखें तत्काल भीग गईं। 

ऐसे मौकों पर उग्र व्यवहार की उम्मीद करना हमारी आदत बन चुकी है। जब इस आदत के विरुद्ध हमें सौम्य और संतुलित व्यवहार मिलता है, तो हम चमत्कृत हो जाते हैं और इस व्यवहार का सामने वाले पर बड़ा चमत्कारिक असर पड़ता है