शुक्रवार, 3 जुलाई 2009

जैसा प्रयास, वैसी उपलब्धि


मंथन के मोती, भाग - 10 
नमस्कार। ‘मथन के मोती’ में आप सभी का हार्दिक स्वागत है और अभिनन्दन भी। इस कार्यक्रम में मैं न जाने कहाँ-कहाँ से आपके लिए छोटे-छोटे किन्तु काफी मूल्यवान मोती लेकर आता हूँ। मुझे विश्वास है कि ये मोती आपको जरूर पसन्द आते होंगे। इसी तरह का एक छोटा-सा किन्तु बिल्कुल नया मोती आज मैं आपके सामने प्रस्तुत करने जा रहा हूँ। आज का यह मोती यहूदी धर्म की मान्यता से जुड़ा हुआ है। तो पहले यह मान्यता सुनें।
यहूदी मान्यता में ‘तालमुड’ के अनुसार ईश्वर गर्भ में हर बच्चे के पास एक व्यक्तिगत फरिश्ते को भेजता है, जो हमें वह सारा ज्ञान देता है, जिसे जानने की जरूरत पड़ेगी। और फिर हमारे जन्म लेने से ठीक पहले अपनी ऊँगली से हमारी नाक और ऊपरी होंठ के बीच हल्के से दबाता है, और हम उसका सिखाया सब कुछ भूल जाते हैं। इसलिए यह हिस्सा थोड़ा दबा हुआ सा होता है, जिसे शरीर-विज्ञान की भाषा में ‘फिलट्रम’ कहते हैं।
अजीब मान्यता है यह। पहले सिखाया, और फिर सब कुछ भुला दिया। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए, क्योंकि सीखने का सबसे अच्छा तरीका है, खुद सीखना, उससे खुद गुजरना। यह भी कि यदि कोई चीज एक बार सीख ली जाए, तो उसे दुबारा सीखना आसान हो जाता है। ईश्वर मदद करते हैं-‘‘मैं तुम्हें मंजिल के बारे में यात्रा शुरू करने से पहले ही बता देता हूँ, ताकि जब तुम वहाँ पहुँचो, सब कुछ जाना-पहचाना और आसान लगे।’’
है न कितनी अच्छी और मजेदार मान्यता। आप चाहें तो ईश्वर से शिकायत कर सकते हैं कि यदि भूलाना ही था तो फिर सिखाया क्यों? यहूदी मान्यता में हमें इसका बहुत सुन्दर जवाब मिलता है। जवाब यह है कि इस धरती पर कोई भी वस्तु हमें यूँ ही नहीं मिलेगी। वह वस्तु मौजूद तो है, लेकिन उसे प्राप्त करना होगा। कोई हमें थाल में रखकर नहीं देगा और यदि दे भी देता है, तो उसकी हमारे लिए कोई कीमत नहीं रह जाती। 
अभी मेरे दिमाग में यह एक प्रश्न आ रहा है कि अधिकांश देवी के मन्दिर पहाड़ियों पर ही स्थित क्यों रहते हैं? माँ वैष्णो देवी के दर्शन के लिए बारह किलोमीटर की चढ़ाई चढ़नी पड़ती है। यहाँ तक कि अन्य देवियों के मन्दिरों पर माथा टेकने के लिए कुछ-न-कुछ ऊँची चढ़ाई चढ़नी ही पड़ती है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह भी इसी मान्यता से जुड़ी हुई बात हो। शायद माँ चाहती हों कि मेरे पास वही आए, जो सच में आना चाहता है। ऐसा नहीं कि यूँ ही रास्ते से गुजर रहे थे और सोचा कि चलो दर्शन भी कर लें। यदि माँ के दर्शन करने हैं, तो उसके लिए उद्देश्य बनाना पड़ेगा और उद्देश्य बनाने के बाद थोड़ी-सी चढ़ाई भी चढ़नी पड़ेगी। हाँ, चढ़ाई चढ़ सकें इसके लिए हमें पैर दे दिए गए हैं। इन पैरों को गतिशील अब हमें स्वयं करना होगा तब कहीं जाकर हम अपने लक्ष्य तक पहुँच सकेंगे।
यदि हम जीवन में श्रम के और कर्म के इस महत्त्व को पूरे खुले मन से स्वीकार कर लेते हैं, तो हमारी कई कठिनाईयाँ अपने-आप ही समाप्त हो जाती हैं। यही हालत होती है, हमारी अनेक शिकायतों की भी। हम सभी को उतना ही मिलता है, जितनी की पात्रता हममें होती है। जितना बड़ा होगा हमारा पात्र, ईश्वर के द्वारा दी गई उतनी ही भिक्षा उसमें समाएगी। जैसे होंगे हमारे प्रयास, वैसी ही होगी हमारी उपलब्धि। अभिलाषाओं से उपलब्धियाँ नहीं मिला करतीं। हमसे गलती यही होती है कि हम अभिलाषा करते हैं और जब यह पूरी नहीं होती, तो शिकायत करते हैं।  
तो आइए, हम अपने अभिलाषाओं को कर्म का सहारा दें, ताकि वे अभिलाषाएँ उपलब्धियाँ बन सकें। आज के मंथन में बस इतना ही। आगे आपसे फिर भेंट होगी। अंत में एक निवेदन यह कि आपको यह कार्यक्रम कैसा लगा, हमें जरूर बताएँ ताकि हम इसे और अच्छे-से-अच्छा बना सकें।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है


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