मंगलवार, 7 जुलाई 2009

अच्चे संग से सफलता सुनिश्चित करें

मंथन के मोती, भाग - 14
‘‘मंथन के मोती’’ में आपका स्वागत है। मेरा प्रणाम स्वीकार करें।
हमारे यहाँ सत्संग को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है। सत्संग का अर्थ है अच्छा संग। तुलसीदास जी ने तो इसे और भी अधिक महत्त्व दिया है। उन्होंने पहले तो यह कहा कि ‘‘बिनु सत्संग विवेक न होई’ यानी कि अच्छे लोगों के संग के बिना ज्ञान नहीं मिलता। फिर इसके भी आगे जाकर उन्होंने कहा ‘बिनु हरि कृपा मिलहिं नहीं संता’। जब तक ईश्वर की कृपा नहीं होती। तब तक संत नहीं मिलते और जब तक संत नहीं मिलते तब तक सत्संग नहीं होता। जब तक सत्संग नहीं होता तब तक विवेक जागृत नहीं होता और जब विवेक ही जागृत नहीं होगा, तब भला जीवन अच्छा कैसे हो सकता है। इसीलिए तो हमारे बड़े-बूढ़े बचपन से ही अपने बच्चों को बताते रहते हैं-जैसी संगत वैसी रंगत। वे बताते रहते हैं कि अच्छे लोगों के साथ रहने से बुरे लोग भी वैसे ही अच्छे बन जाते हैं जैसे कि चंदन के वृक्ष को काटने वाली कुल्हाड़ी में भी चन्दन की सुगन्ध समा जाती है।
बात बहुत स्पष्ट है कि जब भी अच्छे लोग मिलेंगे, कुछ न कुछ अच्छी बातें ही करेंगे। जब वे कुछ न कुछ अच्छी बातें करेंगे, तो कुछ न कुछ अच्छा ही होगा। दुनिया में बहुत से अच्छे काम कुछ अच्छे लोगों के आपस में मिलने के कारण ही हो पाए हैं। तो लीजिए मैं प्रस्तुत करता हूँ इसी तरह का एक सच्चा उदाहरण, जिसने एक ऐसी फिल्म कम्पनी की स्थापना कर दी, जिसे हम विमल दा प्रोडक्शन के नाम से जानत हैं। इस कम्पनी ने देश को ‘सुजाता’ और ‘बंदिनी’ जैसी अनेक कालजयी फिल्में दीं। लीजिए सुनिए इस कम्पनी के बनने की यह कहानी-
मिले होते, तो हमारा देश कई महत्वपूर्ण सामाजिक फिल्मों को देखने से वंचित रह जाता। बिमल दा प्रोडक्शन ने जिन सामाजिक उद्देश्यों को लेकर फिल्में बनाईं, जो मधुर गीत और संगीत उन्होंने भारतीय वातावरण में घोले, वे अपने-आपमें उदाहरण हैं। जब भी हम अच्छे लोगों से मिलते हैं, हमारे मस्तिष्क का वातावरण ठीक उसी तरह से अच्छा हो जाता है जैसे कि हम किसी बागीचे में पहुँचने के बाद महसूस करते हैं। हमारे मस्तिष्क का वातावरण भी हमेशा स्वच्छ, सुन्दर, प्रकाश
‘विमल दा प्रोडक्शन’, जिसने ‘दो बीघा जमीन’ जैसी यथार्थवादी फिल्म बनाई थी, का जन्म अचानक बम्बई की डबलडेकर बस में हुआ था। हुआ यों कि एक बार बिमल दा अपने साथियों-ऋषिकेश मुखर्जी, असीन सेन आदि के साथ मुम्बई के इरोज थियेटर से जापानी फिल्मकार कुरोसावा की ‘रोसोमन’ देखकर लौट रहे थे। बिमल राय ने अपने साथियों से पूछा कि ‘‘हम ‘रोसोमन’ जैसी यादगार फिल्म क्यों नही बना सकते।’’ बस, इसी उद्देश्य से उन्होंने वहीं एक फिल्म कम्पनी बनाने का फैसला कर लिया।
क्या आपको नहीं लगता कि यदि ये तीनों मित्र उस समय नहीं
वान और हवादार बना रहे, इसके लिए आवश्यक हैं कि हम अपने दिन भर का कुछ न कुछ समय अच्छे लोगों की संगत में बिताएँ।
‘‘मंथन के मोती’’ के साथ बिताया गया समय भी एक ऐसा ही अच्छा समय है। क्या ऐसा नहीं है? हमें बताएँ, हमें लिखें, हमें अच्छा लगेगा। आज के लिए इतना ही। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

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