सोमवार, 6 जुलाई 2009

मन और दिमाग के जालों को साफ़ करें


मंथन के मोती, भाग - 13

आप सभी को मेरा प्रणाम। ‘‘मंथन के मोती’’ के साथ मैं आज फिर कुछ समय आप लोगों के साथ बिताने के लिए उपस्थित हूँ। मेरा विश्वास है कि यह जो थोड़ा-सा समय आप हमें दे रहे हैं, यह आपके जीवन में थोड़ा न थोड़ा तो ज्यादा बनकर वापस आ ही रहा होगा।
आज हम सभी भागम-भाग की जिन्दगी जी रहे हैं। जिससे भी बात कीजिए, वह परेशान सा नजर आता है। हमारी ढेर सारी परेशानियाँ तो ऐसी होती हैं, जिनके लिए हम खुद ही जिम्मेदार होते हैं। ऊपरी तौर पर तो यही लगता है कि यह परेशानी किसी दूसरे के कारण है। लेकिन सच्चाई कुछ अलग ही होती है।
मैंने इस सच्चाई पर खूब गौर किया है और उसी में से एक सच्चाई को मैं अभी आपके साथ शेयर करने जा रहा हूँ।
हमारी परेशानियों का सबसे पहला कारण यह होता है कि हमारे दिमाग में यह बात स्पष्ट ही नहीं होती कि आखिर हम चाहते क्या हैं। कोई धन चाहता है। और जब धन मिल जाता है, तब भी परेशान रहता है। कोई पद चाहता है। जब पद मिल जाता है, तो उसकी परेशानी बढ़ जाती है। संतानहीन दम्पत्ति सन्तान के लिए जाने क्या-क्या करती हैं। जबकि जिसे सन्तान मिली हुई है, वह अपनी सन्तानों से दुखी हैं। सोचकर देखिए कि आखिर यह घालमेल है क्या। जब कोई चीज़ नहीं होती, तब हम उसके लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। और जब वह मिल जाती है, तो वह न केवल दो कौड़ी की हो जाती है, बल्कि हम उससे परेशान होने लगते हैं।
वस्तुतः परेशानी बाहर नहीं होती, हमारे अन्दर होती है। जब हमारे विचार स्पष्ट नहीं होते, तब हमारे उद्देश्य स्पष्ट नहीं होते, तब परेशानी पैदा होने लगती है। और जैसे-जैसे हम अपने विचार और उद्देश्यों में उलझते जाते हैं वैसे-वैसे परेशानियाँ बढ़ने लगती हैं।
इस बारे में मुझे रामकृष्ण परमहंस के साथ घटी एक सच्ची घटना याद आ रही है। मैं आपसे यहाँ इस घटना को प्रस्तुत किए जाने की अनुमति चाहूँगा।
हुआ यूँ कि एक दिन रामकृष्ण परमहंस जी के पास एक सेठ जी आए। उनके हाथ में अशर्फियों की थैली थी। सेठ जी ने वह थैली परमहंस जी के चरणों में रखते हुए उसे स्वीकार करने की प्रार्थना की। परमहंस जी ने कहा कि ‘‘मैं इसका क्या करूँगा? गरीबों को बाँट देना।’’ सेठ जी इस पर बोले कि ‘‘मैं तो यह धन आपको सौंपने आया हूँ। अच्छा होगा कि आप ही इसे गरीबों को बाँट दें।’’ यह सुनकर परमहंस जी को पता नहीं क्या लगा कि उन्होंने अशर्फियों की वह थैली अपने हाथ में ले ली और इसके बार तुरन्त ही वह थैली फिर से सेठ जी को सौंपते हुए बोले-‘‘तुम एक काम करो। इस थैली को पास की नदी में डालकर मेरे पास लौट आओ।’’
सेठ जी यह सुनकर दंग रह गए और परमहंस जी के मुँह की तरफ देखने लग गए। रामकृष्ण जी ने कहा अब यह धन मेरा है। मैं इसका चाहे जो भी करूं। अब यह तुम्हारा नहीं है। तुमको जो काम कहा है, तुम वह करो।’’ सेठ जी मजबूर थे वे वहाँ से चले गये। जब वे दो घंटे तक लौटकर नहीं आए, तो परमहंस जी ने अपने एक शिष्य को सेठ जी की खोज-खबर लेने के लिए भेजा। शिष्य ने वहाँ जाकर देखा कि सेठ जी नदी के किनारे बड़े दुखी मन से बैठे हुए हैं। वे थैली से एक अशर्फी निकालते और नदी में डाल देते। शिष्य ने यह बात आकर परमहंस जी को बताई। परमहंस सुनकर मन ही मन मुस्कराने लगे।
इस कहानी को सुनने के बाद आप मेरे इस प्रश्न का उत्तर ढूढंने की कोशिश करें कि जब परमहंस थैली नहीं ले रहे थे, तब सेठ जी क्यों दुःखी थे और अब जब थैली लेकर उसे नदी में डालने के लिए कहा है, तब भी सेठ जी दुःखी क्येां हैं। क्या आपको नहीं लगता कि ऐसा इसलिए है, क्योंकि सेठ जी अपने विचारों में उलझे हुए हैं और उनका उद्देश्य साफ नहीं है। हालाँकि वे थैली तो परमहंस जी को सौंप चुके हैं लेकिन मन से वे धन की थैली से जुड़े हुए हैं। यदि वे यह सोच लेते कि अब यह धन मेरा नहीं है, तो उन्हें उस थैली को नदी में डालने में केवल एक सैकण्ड लगता। लेकिन मन और विचार की उलझन ने उनको पूरी तरह से उलझा दिया है।
हम सब के साथ भी यही होता है। छोटी बातों से लेकर बड़ी-बड़ी बातों तक यही होता है। यदि हम एक बार अपने दिमाग की इन जालों को साफ कर लें, तो आप देखेंगे कि हम खुद को अन्दर से कितने शक्तिशाली महसूस करेंगे। हमारा मस्तिष्क प्रकाशवान हो जाएगा। हमारी आत्मा की शक्ति बढ़ जाएगी और हम एक अलग ही तरह का सरल, सहज जीवन जीने लगे हैं।
आप करके तो देखिए एक बार। अगर आपको इसमें सफलता न मिले, तो आप हमें बताएं। तब हम आपको मंथन के कुछ और ऐसे मोती देंगे, जो आपकी इस सफलता को सुनिश्चित करेंगे। अब मैं अनुमति चाहूँगा। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन' में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।

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