रविवार, 28 जून 2009
जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ शाम
मैं आज फिर से आपके लिए मंथन के कुछ मोती लेकर आया हूँ। आप सबको मेरा प्रणाम। आज के इस कार्यक्रम के आरंभ में मुझे फिल्मी गीत की एक पंक्ति याद आ रही है, जिसे मैं आपके साथ शेयर करना चाहूँगा। इस गीत की पहली लाईन है-‘जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबह-ओ शाम।’ कितनी सुन्दर पंक्ति है यह। थम जाने के बाद तो जीवन खत्म ही हो जाता है, फिर चाहे हमारा सीना साँस के आने-जाने से धौकनी की तरह फूलता-पिचकता ही क्यों न रहे।
जब यहाँ मैं चलने की बात कह रहा हूँ, तो वह शरीर के ही चलने की बात नहीं है, बल्कि उससे भी कहीं अधिक चेतना के चलने की बात है। यह ऐसे चलने की बात है, जहाँ हम कहीं भी न तो थककर बैठते हैं और न ही घबराकर अपना रास्ता छोड़ देते हैं। यह वह चलना है, जब जीवन के हर पल को हम पूरे उल्लास से जीने की कोशिश करते हैं और यहाँ तक कि तब भी, जबकि हमें मालूम है कि अगले ही पल मृत्यु होने वाली है। मृत्यु के अंतिम क्षण तक को अपने कर्म से पकड़ लेना सही मायने में जिन्दगी भर चलते चले जाना है।
तो इसके बारे में मैं आपको इतिहास की एक ऐसी सच्ची घटना सुनवाने जा रहा हूँ, जिस पर विश्वास करना थोड़ा मुश्किल होता है।
सनाका रोम के महान दार्शनिक और सम्राट नीरो के गुरू थे। उन्होंने नीरो को सम्राट बनाने में उसकी माँ की मदद भी की थी। नीरो को शक हो गया कि उसके राजगुरू सनाका उसके विरूद्ध षड़यंत्र कर रहे हैं। नीरो ने सनाका को राजदरबार में नस काटकर बूँद-बूँद रक्त के बहने से होने वाली मौत की सजा दी। सनाका ने घर जाकर परिवार से विदा लेना चाहा। लेकिन नीरो ने इसकी तक इजाजत नहीं दी। सनाका ने कहा-‘‘दर्शन की पुस्तकें मंगवा दो।’’ उनकी यह इच्छा भी ठुकरा दी गई। तब उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा-‘‘आ जाओ! हम दर्शन पर यहीं चर्चा करेंगे। इससे अच्छा अवसर भला और क्या होगा।’’
सचमुच, मुझे विश्वास ही नहीं होता ऐसे लोगों के बारे में सुनकर कि ये सब किस धातु के बने हुए होंगे? कैसा होगा इनका मन और इनकी आत्मा कितनी अधिक शक्तिशाली होगी। ये वे लोग थे, जिन्हें यमराज तक नहीं डरा सका फिर भला जीवन की अन्य परेशानियाँ तो इन्हें क्या डरा पातीं।
महान दार्शनिक सुकरात और सनाका जैसे लोगों में यह जो शक्ति आती है, यह मूलतः उनके चरित्र की दृढ़ता और अपने विचारों की प्रतिबद्धता के कारण आती है। यदि हम अपने उद्देश्यों के प्रति संकल्पबद्ध हो जाते हैं, और संकल्पबद्ध होकर उसमें अपने-आपको पूरी तरह झोंक देते हैं, तो हमारे लिए कोई भी भय, भय नहीं रह जाता। हम अभय हो जाते हैं। तभी तो प्रेम दीवानी मीरा के लिए जहर का प्याला भी अमृत का प्याला बन गया था। मुझे लगता है कि हमें भी अपने जीवन में आत्मा की इस शक्ति को पाने के प्रयास करने चाहिए। ऐसा हो सकता है, इसमें कतई सन्देह नहीं है। अपनी चेतना में सात्विक भावों को स्थान देकर धीरे-धीरे हम इस स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं।
अपने इन्हीं शब्दों के साथ अब आपसे अनुमति चाहूँगा। साथ ही यह भी चाहूँगा कि आप हमें बताएँ कि ये मोती आपको कैसे लग रहे हैं। नमस्कार।
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था। उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है।
गुरुवार, 25 जून 2009
मंथन के मोती, भाग-८
जब कभी हम किसी भी क्षेत्र के सफल और महान लोगों को देखते हैं, तो हमारी गर्दन श्रद्धा से झुक जाती है। हम उनकी प्रशंसा करते हैं और कहीं-न-कहीं हमारे मन में भी यह भाव उठता है कि काश! हमारे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होता। जी हाँ, हमारे साथ भी ऐसा हो सकता है बशर्ते कि हम इसके लिए जी-जान से जुट जाएँ।
इस दुनिया में ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जो यदि की जा सकती है, तो उसे आप नहीं कर सकते। यदि कोई दूसरा कर सकता है, तो निश्चित रूप से आप भी कर सकते हैं। और जिन लोगों ने भी यह सब कुछ किया है, वे भी पहले ऐसे कुछ नहीं थे, जिन्हें देखकर उस समय के लोग यह अनुमान लगा सकते थे कि वे ऐसा कर गुजरेंगे। वह तो बस उनमें एक जोश था, एक उत्साह था जिसकी डोर पकड़कर वे लगतार ऊपर की ओर चढ़ते चले गए। ये न तो धनी परिवारों में पैदा हुए थे, न ही इन पूतों के पाँव ऐसे थे, जो पालने में दिखाई देते हों। इनके साथ न तो कोई चमत्कार हुआ और न ही किसी ने सफलताओं का ताज सीधे-सीधे इनके सिर पर रख दिया। इसके बावजूद इन्होंने अपने जीवन में जिन ऊँचाइयों को छुआ, वे अविश्वसनीय-सी लगती हैं।आइए, तो सबसे पहले हम अलग-अलग क्षेत्रों में सफल हुए कुछ ऐसे ही महान लोगों के नाम जानें-
मंगलवार, 23 जून 2009
नए रास्तों पर चलें, सफलता आपके कदम चूमेगी
सोमवार, 22 जून 2009
मंथन के मोती, भाग - ६
रविवार, 21 जून 2009
गैलीलियो से सीखें जीवन का सिद्धांत
शुक्रवार, 19 जून 2009
कोमल हाथों के स्पर्श का जादू
हावेल साहब की जितनी ख्याति चेक के एक सफल लोकप्रिय एवं महान राष्ट्रपति के रूप में है उससे भी कहीं अधिक वे विश्व के श्रेष्ठ नाटककारों में जाने जाते हैं। उस दिन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा का इसी प्राग कैसल में राजकीय स्वागत हुआ। सारी औपचारिकताओं के बाद विदाई का वक्त आया।
हावेल साहब अपने इस महल से निकलकर बाहर के खुले हिस्से में सभी को निजी तौर पर विदाई देने आए। भारतीय प्रतिनिधिमंडल के उपस्थित सदस्यों में से शायद ही कोई इतना बदकिस्मत रहा होगा, जिनके कंधों पर हाथ रखकर उन्होंने विदाई न दी हो। लेकिन हम लोगों ने विदाई ली कहां। उनके छोटे-छोटे कोमल हाथों का स्पर्श इतना स्नेहपूर्ण था कि उन्हें विदाई न देते हुए अपने दिलों में बसाकर चले आए।
12 साल पहले की इस घटना को याद करने का कारण यह है कि आज स्पर्श की बात तो दूर, आदमी के दर्शन को भी दुर्लभ बनाया जा रहा है। ईमेल ही गांव की चौपाल और पनघट बन रहा है, जहां आप उनका चेहरा-मोहरा देखे बिना ही उनसे बातें कर रहे हैं और केवल उतनी ही बातें कर रहे हैं जिससे आपका काम चल जाए।
आदमी की सच्ची सफलता और सच्चे विकास का मापदंड यही है कि वह कितने लोगों के जेहन में रचा-बसा हुआ है। किसी के जेहन में जगह लूटने से नहीं, वरन लुटाने से बनती है, फिर चाहे आप दौलत लुटाएं या दिल। वात्स्लाव हावेल जैसे लोगों की महानता और सफलता का राज इसी में है कि उन्हें जहां भी मौका मिलता है, अपने दिल का एक छोटा सा टुकड़ा उछाल देते हैं।
नोट - यह आलेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है.
गुरुवार, 18 जून 2009
हाथ से लिखी चिठ्ठी का महत्व
‘दस्ती चिट्ठी’ यानी कि ‘हाथ से लिखी हुई चिट्ठी।’ तो क्या सचमुच हाथ से लिखी चिट्ठी में इतनी आंच होती है कि वह ‘न जाने’ के लोहे को पिघलाकर ‘जाने’ में तब्दील कर देती है? होती है, तभी तो यह हुआ। आगे भी होती रहेगी, तभी तो मैं यह बात आप सब तक पहुंचा रहा हूं।
दोस्तो! यहां सवाल दस्ती चिट्ठी का नहीं, बल्कि भावना के उस अद्भुत और अतुल स्पर्श का है, जिसे हम आम शब्दावली में ‘पर्सनल टच’ कहते हैं। ई-मेल, एसएमएस, ग्रीटिंग कार्ड और मोबाइल के इस महंगे जमाने में भी हाथ से लिखी हुई चिट्ठी की चाहत आदमी की उस मूल आस्था से जुड़ी हुई है, जिससे वह विमुख नहीं होना चाहता। इसलिए यह छोटी-सी घटना, यह छोटी-सी दस्ती चिट्ठी विराट रोबोट के विरोध में फहराती रहने वाली विजय पताका की तरह हम सभी के दिल और दिमाग में हमेशा-हमेशा के लिए रच-बस गई है।
‘पर्सनल टच’ की ताकत को पहचानने वाले जानते हैं कि वे काम जिन्हें धन, पद, शक्ति और लाखों तर्क-वितर्क नहीं कर पाते, उसे यह कर दिखाता है। प्रकृति ने हमें यह यूं ही दिया है। हमें इसे यूं ही नहीं जाने देना है।
नोट - यह आलेख दैनिक भास्कर में बुधवार, १९ नवम्बर , २००८ को प्रकाशित हो चूका है.
बुधवार, 10 जून 2009
सूचना की ताकत कितनी असरकारी है
उसने बताया कि इस ट्रांजिस्टर ने ही मुझे आईएएस बनाया है। मुझे समझाने के लिए उसने खुलासा किया कि दरअसल बात यह है कि मैं बचपन से ही न्यूज सुनने का आदी था। एक दिन मैंने रात के पौने नौ बजे की न्यूज में सुना कि अब आईएएस की परीक्षा हिंदी में भी दी जा सकती है। मैं था गांव का रहने वाला। अखबार आते नहीं थे। अंग्रेजी मुझे नहीं आती थी। यदि उस दिन मैं यह खबर नहीं सुन पाता, तो फिर मैं इसके लिए सोच भी नहीं सकता था।
आमतौर पर तो हम सभी को यही लगता है कि एक बड़ी उपलब्धि बड़ी बातों से मिलती है, लेकिन बड़ा सच तो यह है कि छोटी-छोटी बातें ही मिलकर बड़ी बनती हैं, बशर्ते हम उन छोटी बातों को पकड़ लें। दोस्तो! इस सच्ची कथा को सुनने के बाद मैंने तीन बातें हमेशा-हमेशा के लिए अपनी गांठ में बांध लीं। पहली बात तो यह कि जिंदगी में कभी भी सूचनाओं की उपेक्षा नहीं करूंगा।
न जाने कौन सी सूचना जिंदगी को बदल देने वाली सिद्ध हो जाए। हो सकता है कि एक सूचना को खोने का अर्थ एक सफलता को खोना ही हो। दूसरे यह कि अच्छी चीजों को जीवन की आदत बनाऊंगा, जैसा कि उसने समाचार सुनने को बनाया था। और तीसरी तथा आखिरी बात यह है कि जितना भी मेरी जिंदगी को बनाने और बढ़ाने में योगदान रहा है, मैं उन्हें हमेशा याद रखूंगा, जैसा कि मेरा वह मित्र ट्रांजिस्टर के साथ करता है।
सोमवार, 8 जून 2009
गहराई में जाने से मिलती है सफ़लता
विजय अग्रवाल, मोबाइल - ०९४२५०१०२५४
नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था. डॉ॰ विजय अग्रवाल का यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है.
रविवार, 7 जून 2009
धन से पायें मोक्ष!
नोट - यह आलेख मनी मंत्र में प्रकाशित हो चुका है |
शनिवार, 6 जून 2009
अजनबियों से भी अपनत्व से पेश आएं
मेरे लिए ऑटो से आने या जाने का मतलब होता था ऑटो वाले के साथ चिकचिक, बहसबाजी और झगड़े का होना। उस समय तो मेरी जान ही सूख गई, जब मुझे लगातार दस दिनों के लिए संसद मार्ग से एशियाड विलेज के लिए सुबह जाना था और रात में लौटना था। इसका मतलब था दिन की शुरुआत चिकचिक से होना और दिन की समाप्ति बहसबाजी में होना। यह बहुत दुखद था और असहनीय भी। मैंने मन ही मन ठाना कि इस बार मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। अब मैं ऑटो को रोकता और उससे ‘एशियाड विलेज’ चलने को कहकर उसमें बैठ जाता। बैठते ही मैं उससे पूछता कि ‘भइया कहां के रहने वाले हो?’ उसके उत्तर के साथ ही बातचीत का सिलसिला चल निकलता कि वह दिल्ली क्यों आया, उसके बच्चे कितने हैं और क्या करते हैं आदि-आदि। यह सिलसिला गंतव्य स्थल पहुंचने पर ही रुकता। ऐसा एक बार नहीं, बल्कि कई बार हुआ। मेरी तरकीब ने जादुई तरीके से अपना काम किया था और मैं जीत गया था।
इससे मेरी यह धारणा पहले से भी अधिक मजबूत हो गई कि आज हर आदमी को अपनत्व की तलाश है। हाथ मिलाने वाले तो बहुत से हैं, लेकिन कंधे पर हौले से हाथ रखने वाला कोई नहीं है। पुचकार और दुलार की भाषा तो गाय और कुत्ते तक जानते हैं, फिर इंसान को भला कैसे खारिज किया जा सकता है, चाहे वह कितना ही अनपढ़ क्यों न हो।
किसी की पीठ पर रखे गए हाथ के स्पर्श का जादू हजारों उपदेशों तथा सैकड़ों आदेशों से ज्यादा कारगर होता है और इसके लिए हमें कुछ खर्च भी नहीं करना पड़ता। हमें केवल करना पड़ता है और वह भी थोड़ा सा। जो लोग जिंदगी में बहुत आगे निकल सके और जिन्होंने लोगों को अपने पीछे चलने को मजबूर किया, वे आदमी के अंतस को छूने के इस रहस्य को अच्छी तरह से जानते थे। इसे मैंने भी जान लिया है, आप भी जानने की कोशिश करें।
नोट - यह लेख बुधवार, 26 मार्च, 2008 को दैनिक भास्कर के 'विकास मंत्र' स्तम्भ में प्रकाशित हुआ था.
शुक्रवार, 5 जून 2009
अपने काम को बनाएं सेवा
उन्होंने कहा, ‘सर, काम तो हम रोज ही करते हैं, लेकिन सेवा करने का मौका कभी-कभार ही मिलता है।’ आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि ये सज्जन मेरे अधीन काम कर चुके थे। ‘सेवा’ शब्द पानी की ठंडी धार की तरह मेरे कानों से होते हुए नाभि तक उतर गया, और मैं अभिभूत हो उठा।
सेवा भी आखिर में होता तो काम ही है। लेकिन दोनों में जो बहुत महीन और गहरा अंतर है, वह है - बोध का। यह फर्क भावना का फर्क है, जुड़ाव का फर्क है। सेवा में जुड़ाव जरूरी है। काम में तटस्थता चलेगी, लेकिन सेवा में नहीं। इस जुड़ाव का अनुभव हम तब करते हैं, जब हम मन से बनाया हुआ भोजन करते हैं। फामरूले तो सब वही रहते हैं, लेकिन मन का, जुड़ाव का हल्का-सा छौंक लगाते ही भोजन का स्वाद एकदम बदल जाता है।
यही काम के साथ भी होता है। काम और मन का रिश्ता कायम होते ही न केवल काम की गुणवत्ता में सुधार आ जाता है, बल्कि उसके पूरा होने का समय भी कम हो जाता है। और इन सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह कि काम करने में आनंद आता है, सो अलग। क्या ‘आनंद’ से बड़ा होता है - प्रमोशन, और क्या इससे भी बड़ा होता है - कोई पुरस्कार?
नोट - यह लेख ११, फरवरी २००९ को दैनिक भास्कर के 'विकास मंत्र' स्तम्भ में प्रकाशित हुआ था.
गुरुवार, 4 जून 2009
अवगुणों को छोड़ गुणों पर ध्यान दें
आठ साल तक उनका प्रेम प्रसंग चला, और जब दोनों को लगने लगा कि दोनों एक-दूसरे के बिना नहीं रह सकते, तो जैसा कि ऐसे मामलों में होता है, दोनों ने घर वालों से विद्रोह कर शादी कर ली। शादी के चार साल बाद आज वही जोड़ी मेरे सामने बैठकर कह रही थी कि ‘हम एक साथ नहीं रह सकते।’ जाहिर है कि दोनों के पास शिकायतों के अपने-अपने और सही-गलत पुलिंदे थे, जिन्हें मेरे सामने पेश करने में उनमें होड़ लगी थी।
तंग आकर मैंने पहले लड़की से पूछा कि ‘आखिर, इस लड़के में तुमने ऐसा क्या देखा कि इसके साथ पूरी जिंदगी गुजारने का फैसला कर बैठी?’ उसने जवाब दिया कि ‘वह इंटेलीजेंट था।’ मैंने पूछा कि क्या तुम्हारा यह अनुमान बाद में गलत निकला?
वह थोड़ी घबराई, फिर उसने पूरे विश्वास के साथ कहा ‘नहीं, वह आज भी इंटेलीजेंट है।’ बस, उसके इस उत्तर ने मेरे हाथ में ब्रह्मास्त्र दे दिया और मैंने उसे चलाने में तनिक भी देरी नहीं की कि ‘जब वह आधार, वह नींव मौजूद है, जिस पर तुम्हारा प्रेम खड़ा था, तो अब प्रेम क्यों नहीं है।’
वे दोनों निरुत्तर हो गए। कुछ दिनों बाद लड़की ने अपने जन्मदिन पर फोन करके इस बात के लिए आशीर्वाद मांगा कि ‘हम दोनों में प्रेम और समझदारी यूं ही बनी रहे।’ दोस्तो, सभी में दोनों होते हैं। कुछ अच्छा-कुछ बुरा। जब तक ध्यान अच्छे पर रहता है, संबंध रहते हैं। जब ध्यान अच्छे से हटकर बुरे पर चला जाता है, संबंध चटकने लगते हैं। इस घटना के बाद मेरे जेहन में यह बात बैठ गई कि यदि किसी की एक कमी, एक गलत घटना हमें उससे हमेशा-हमेशा के लिए दूर कर सकती है तो कोई एक गुण, एक अच्छी घटना हमें उससे हमेशा के लिए जोड़े भी रख सकती है।
बुधवार, 3 जून 2009
इमोशनल एनर्जी का सच
फिर भी मैंने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया था कि ‘आखिर कब तक यूं ही डरता रहूंगा।’ सुबह आठ बजे मेरी पत्नी प्रीति का फोन आया ‘शुभकामनाएं आपके लेक्चर के लिए।’ ये शब्द सुनते ही मैं जोश से भर गया। मुझे लगा मानो ये किसी फरिश्ते के शब्द हैं, जो ऊर्जा बनकर मेरी देह और मेरी चेतना में व्याप्त हो गए हैं। मेरा गला भर गया था और मैं ‘धन्यवाद’ से अधिक कुछ जवाब न दे सका। उसी क्षण, तत्काल मैं निर्भय हो गया। मुझमें एक विलक्षण आत्मविश्वास आ गया और मैं डेढ़ घंटे की बजाय सवा दो घंटे तक लगातार बोलता गया और मुझे ध्यान से सुना गया। तार्किक रूप से बता पाना मुमकिन नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ। लेकिन सच यही है कि ‘ऐसा हुआ, और ऐसा होता है।’ हम सभी के अंदर एक इमोशनल एनर्जी है, जिसकी शक्ति अद्भुत होती है। यह छिपी हुई रहती है, ठीक वैसे ही जैसे पत्थर में मौजूद असंख्य चिंगारियां। जब आपके अपने बहुत गहरे बैठा हुआ कोई उसे रगड़ या कुरेद देता है तो चौंधिया देने वाले प्रकाश का अदम्य फव्वारा अचानक फूट पड़ता है। और देखते ही देखते सारा नजारा रोशनी में नहा उठता है, शायद यही हुआ होगा। हमें इसकी खोज करनी ही चाहिए।
नोट - यह लेख ०२ अप्रैल २००९ को दैनिक भास्कर के 'विकास मंत्र' स्तम्भ में प्रकाशित हुआ था.
मंगलवार, 2 जून 2009
खुद बन जाएँ दूसरों के लिए रोल मॉडल
जिंदगी में हम क्या बनते हैं, इसका इस बात से बहुत गहरा ताल्लुक होता है कि हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं। और हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं, इसका गहरा ताल्लुक इस बात से होता है कि हमने अपनी जिंदगी के लिए किसे अपना रोल मॉडल बनाया है। इसी सिद्धांत को ध्यान में रखकर मैंने कुछ समय पहले मध्यप्रदेश के ऐसे विद्यार्थियों पर एक शोध कार्य किया, जिनमें से ज्यादातर की पृष्ठभूमि गाँव और कस्बों की थी। उनसे जो दो महत्वपूर्ण प्रश्न पूछे गए थे, उनमें से पहला प्रश्न यह था कि वे क्या बनना चाहते हैं तथा दूसरा प्रश्न था कि वे किसे अपना आदर्श मानते हैं। पहले प्रश्न के जवाब में ज्यादातर युवाओं ने अधिकारी बनने की बात लिखी थी तो किसी ने बड़ा अधिकारी बनने की बात। मैं समझता हूँ कि ऐसा उन्होंने इसलिए लिखा था, क्योंकि हमारी कस्बाई मानसिकता अभी भी सामंतवादी सोच से उबर नहीं पाई है। सरकारी अधिकारी का दबदबा हमारे दिमाग में अभी तक ठीक उसी प्रकार बना हुआ है, जिस प्रकार से हम भारतीयों के दिमाग में अँगरेजी भाषा का दबदबा बना हुआ है।
मेरे दूसरे प्रश्न के उत्तर में अधिकांश ने अपना आदर्श अपने पिता को बताया था। उसमें एक प्रश्न यह था कि आपके पिता क्या करते हैं। इनमें से ज्यादातर के पिता किसान थे या छोटे व्यापारी थे, मजदूर थे या दफ्तरों में काम करने वाले छोटे कर्मचारी थे। यहाँ मुझे गलत बिलकुल न समझें। मेरे लिए मजदूर, किसान और छोटे कर्मचारी उतने ही सम्माननीय हैं, जितना सम्माननीय कोई भी बड़ा अधिकारी, मैनेजर और उद्योगपति हो सकता है। फिर जब बात पिता की आती है, तब न तो वह मजदूर रह जाता है और न मालिक। पिता तो केवल पिता ही होताहै। यहाँ हम सबके लिए सोचने और समझने की बात यह है कि हम जो बनना चाह रहे हैं , और वह बनने के लिए हमने जो अपना रोल मॉडल चुना है, क्या वे दोनों एक-दूसरे से मैच करते हैं? देखिए, बात सीधी-सी है कि यदि आपको हिन्दुस्तान से अमेरिका जाना है तो दुनिया की दाहिनी दिशा की ओर यात्रा करनी होगी। ऐसा नहीं हो सकता कि आप पहुँचना चाहते हैं चन्द्रमा पर और उसके लिए छलाँग लगा दें हिन्द महासागर में। यदि आपने मंजिल का निर्धारण कर लिया है और आपकी दिशा सही नहीं है तो मैं यही कहूँगा कि आपकी मंजिल भी सही नहीं है। या तो मंजिल के अनुसार दिशा को चुनिए या फिर यदि आपने दिशा चुन ली है, तो वह जहाँ पहुँचा दे उसे ही अपनी मंजिल समझिए। दरअसल होता यह है कि हमारे रोल मॉडल हमारे लिए 'लाइट हाउस' का काम नहीं करते। वे न तो उनमें ईंधन भरते हैं और न ही उनके लिए आश्रय स्थल बनते हैं। वे तो केवल गहरी अँधेरी रात में अपनी टिमटिमाहट से उन्हें यह बताते रहते हैं कि सही रास्ता उधर है, ताकि उस सुनसान सागर में वे स्टीमर भटक न जाएँ।
यह पक्का जानिए कि यदि लाइट हाउस की तारों की तरह चमचमाने वाली वह हल्की-सी रोशनी किसी वजह से बुझ जाए, तो स्टीमर अपने गंतव्य तक पहुँच नहीं सकेंगे। बस, मुझे रोल मॉडल की भूमिका इतनी ही लगती है। हमारा रोल मॉडल हमारे लिए चुनौती बनकर हमारे आगे-आगे चलता रहता है और पुकार-पुकार कर कहता रहता है कि 'मुझे छुओ, मुझे पकड़ो'। हम दौड़कर अपना हाथ बढ़ाते हैं कि इतने में वह थोड़ा-सा और आगे निकल जाता है। वह फिर से पहली वाली आवाज लगाता है और हम फिर से उसे पकड़ने की कोशिश करते हैं। ऐसा करते-करते ही एक ऐसी स्थिति आती है कि वह रोल मॉडल हमें अपने आगोश में भरकर अपने कंधे पर बिठाकर हमारी जीत की घोषणा कर देता है। मित्रो, मेरे कहने का मतलब केवल इतना ही है कि अपनी जिंदगी के लिए एक रोल मॉडल चुनिए और याद रखिए वह रोल मॉडल आदर्श और चुनौतियों से भरा मॉडल हो। यदि आपका मॉडल आपके सपनों के अनुसार हुआ तो एक दिन ऐसा आएगा, जब आप खुद दूसरों के लिए रोल मॉडल बन जाएँगे।
जिंदगी में हम क्या बनते हैं, इसका इस बात से बहुत गहरा ताल्लुक होता है कि हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं। और हम सचमुच क्या बनना चाहते हैं, इसका गहरा ताल्लुक इस बात से होता है कि हमने अपनी जिंदगी के लिए किसे अपना रोल मॉडल बनाया है।