‘महाभारत’ की कथा में एक प्रसंग है यक्ष प्रश्न का। इसका संदर्भ यह है कि अपने वनवासकाल की समाप्ति पर पाण्डवों को वन में प्यास लगती है। एक सरोवर पर नकुल पानी लेने जाते हैं। वे जैसे ही सरोवर में उतरते हैं, उन्हें एक आवाज़ सुनाई देती है कि ‘‘माद्रीनन्दन! दुस्साहस न करो। यह सरोवर मेरे अधीन है। पहले मेरे प्रश्नों का उत्तर दो, फिर पानी पीओ।’’ नकुल प्यास से त्रस्त था। प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही पानी पी लिया, और पीते ही ढ़ेर हो गया। सभी पाण्डवपुत्रों के साथ यही हुआ। अंत में जब युधिष्ठिर गये, तब उन्होंने सरोवर के उस यक्ष के सभी प्रश्नों के सही-सही उत्तर देकर पानी भी पीया और अपने मृत भाइयों को जीवित भी किया।
यक्ष द्वारा पूछे गए कई प्रश्नों में अंतिम प्रश्न था-सुखी कौन है? आश्चर्य क्या है? मार्ग क्या है? और वार्ता क्या है?
सुखी कौन है? के प्रश्न के उत्तर में धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा-जिस पुरुष पर ऋण न हो, जो परदेश में न हो, और अपने घर शाक-पात का पका हुआ भोजन करने वाला संतोषी व्यक्ति सुखी है।
मुझे लगता है कि अमेरीका से शुरु होकर यूरोप होते हुए धीरे-धीरे पूरी दुनिया पर पसर जाने वाली मन्दी के इस दौर में यक्ष प्रश्न के इस संदर्भ का याद आना स्वाभाविक ही है। अर्थशास्त्री और वित्त विशेषज्ञ इस मंदी के चाहे कितने-कितने भी कारण क्यों न गिनाते रहे, लेकिन इन सभी कारणों का भी जो कारण है, वह बेतहाशा और अविवेकपूर्ण तरीके से ऋण लेते चले जाना और देते चले जाना ही है। मजेदार बात यह है कि यह ऋण अपने जीवन को सुखी बनाने के लिए लिया गया था, जबकि महाभारतकार का कहना ठीक इसके विपरीत है कि जिसने ऋण नहीं लिया, वह सुखी है।
भारतीय लोकमानस ने ऋण के बारे में बहुत ही सुन्दर, बहुत ही टिकाऊ, बहुत ही व्यावहारिक और नैतिक दृष्टि से बहुत ही उम्दा व्यवस्था की हुई है। उसने ऋण को, कर्ज को दो भागों में बाँटा है। पहला भाग सीधे-सीधे धन के लेन से जुड़ा हुआ है। लेकिन दूसरा भाग कहीं इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, जो कृतज्ञता से संबंधित है। हमारे लिए यदि किसी ने कुछ किया है, फिर चाहे उसने यह अपने दायित्वों को निभाने के लिए ही क्यों न किया हो, उसने हमें कर्जदार बना दिया है। इसलिए तो हमारे यहाँ मातृ-पितृ ऋण, गुरु ऋण, देव ऋण, और पितृऋण जैसे अनेक ऋणों की बात की जाती है। उन्होंने हमारे लिए जो कुछ भी किया है, उसके लिए हम उनके प्रति कृतज्ञ रहते हैं, आभारी रहते हैं, और उनकी सेवा करके, उनका सम्मान करके और उनके काम आकर इस ऋण से मुक्त होने की कोशिश करते हैं।
इससे भी कहीं बड़ी बात यह है कि पुनर्जन्म के साथ केवल अच्छे और बुरे कर्म को ही नहीं जोड़ा गया है, बल्कि कर्ज को भी जोड़ा गया है। इसके अनुसार कर्ज लेना बुरा नहीं है, लेकिन कर्ज लेकर उसे न देना बहुत ही बुरा है। यह एक प्रकार का दुष्कर्म ही नहीं बल्कि एक पाप है। यह एक ऐसा पाप है, जिसका फल अगले जन्म में भुगतना पड़ेगा। और इसे इस तरह भुगतना पड़ेगा कि धन वसूलने वाला किसी न किसी रूप में अपना ऋण वसूलही लेगा। यदि किसी का छोटा या जवान बेटा काफी इलाज करने के बाद चल बसता है, तो यह कहने वालों की कमी नहीं है कि ‘‘पिता ने उससे पिछले जन्म में कुछ कर्ज लिया होगा।’’ यहाँ तक कि किसी लेन देन के मामले में यदि एक आदमी दूसरे आदमी की देनदारी से मुकर जाता है, तो पहले आदमी को यह सोचकर संतोष कर लेने में अधिक समय नहीं लगता कि ‘‘हो सकता है कि यह मुझसे पिछले जन्म का कर्ज वसूल रहा हो।’’
मुझे नहीं मालूम कि इस तरह के विश्वास का आधार कितना ठोस है, या कि यह सोच कितनी वैज्ञानिक है। लेकिन मुझे इतना जरुर मालूम है कि जनमानस में रचा-बसा यह भाव व्यावहारिक बहुत अधिक है। यह इतना व्यावहारिक है कि इस चिंतन ने भारतीय व्यापार और वाणिज्य को न केवल सरल, सहज और सुगम ही बनाया है, बल्कि इसने समाज में नैतिकता के उच्चतर मापदण्ड भी स्थापित किए हैं। बात बहुत पुरानी नहीं है। पिछली शताब्दी के छठे-सातवें दशक तक तो स्थिति यह थी कि लाखों के सौदे बिना लिखा-पढ़ी के यूं ही मुँहजुबानी हो जाया करते थे। यदि किसी ने दस्तखत कराने के लिए कोई कागज बढ़ा दिया, तो इसे अपने प्रति अविश्वास का प्रस्ताव मानते हुए लोग नाराज हो जाते थे, और बात यहाँ तक बढ़ जाया करती थी कि सौदे को ही निरस्त करना पड़ता था। मैं स्वयं ऐसी स्थितियों का गवाह रहा हूँ। और मुझे फिलहाल ऐसी कोई भी एक घटना याद नहीं आ रही है, जिसे मैं विश्वासघात या अविश्वास के रूप में प्रस्तुत कर सकूँ। लोग कर्ज देकर निश्चिंत रहते थे कि वापस मिल जाएगा। कर्ज लेने वालों का पूरा कुनबा इस बात की चिन्ता करता रहता था कि ऋण लौटाना है। और इसे लौटाने का क्रम, यदि जरुरी हुआ, तो पुस्त-दर-पुस्त चलता रहता था।
गौर करने की बात यह है कि इतने सारे धार्मिक, नैतिक और सामाजिक घेराबन्दी के बावजूद भारतीय समाज ने कभी भी ऋणग्रस्तता को न तो महिमामंडित किया, और न ही इसे प्रेरित किया। हालांकि आज से लगभग सोलह सौ साल पहले इसी देश में चार्वाक जैसे दार्शनिक हुए, जिन्होंने घोर भौतिकवादिता का समर्थन करते हुए ‘‘ऋण लेकर घी पीने’ के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। कुछ लोग उनके इस विचार की ओर आकर्षित भी हुए कि ‘‘जब तक जीयो, सुख से जीयो। उधार लेकर घी पीयो।’’ लेकिन यह दर्शन चल नहीं पाया, बावजूद इसके कि इसी देश ने चार्वाक की बौद्धिकता का लोहा मानते हुए उन्हें ऋषि का दर्जा दिया।
इसके स्थान पर ऋण के बारे में जन-जन की चेतना में ‘‘जितनी चादर हो, उतना पैर पसारो’’ के मुहावरे को स्थापित किया गया। ऐश्वर्यशाली ऐसे भगवान से, जो सबकी मनोकामना को पूरा करने वाले हैं, जब उनसे भी माँगा गया, तो यही माँगा गया कि -
साँई इतना दीजिए, जामें कुटुम समाये।
मैं भी भूखा ना रहूँ,, साधु न भूखा जाये।।
जहाँ चाहत ही इतनी सी होगी वहाँ ऋण लेने, इसके लिए उकसाने और उसका गुणगान करने की जरुरत ही नहीं रह जाती है।
मैं इन भारतीय सन्दर्भों की चर्चा इस विशेष आशय के कारण कर रहा हूँ कि हमने हमेशा केवल ऋण को ही नहीं, बल्कि उससे भी कहीं अधिक ऋण की नैतिकता को महत्व दिया है। इस नैतिकता की एक जबर्दस्त सामाजिक और आर्थिक भूमिका होती है। सामाजिक भूमिका यह कि इसके कारण समाज में विश्वास और समरसता का माहौल बना रहता है। आर्थिक भूमिका यह कि धन का प्रवाह अबाधित तरीके से चलता रहता है। जैसे की ऋण से इस नैतिक संदर्भ को हटा लिया जाता है, चारों ओर अविश्वास, अव्यवस्था और आर्थिक जटिलताओं का दौर शुरु हो जाता है, जो आज हमें देखने को मिल रहा है। दुर्भाग्य यह है कि यह स्थिति पश्चिम में ही नहीं, बल्कि हमारे यहाँ भी तेजी से आती जा रही है। यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया, और ऋण को कानून के साथ-साथ नैतिकता एवं सामाजिक दबावों के साथ नहीं जोड़ा गया, तो जिस मंदी का दौर अभी चालीस सालों में आया है, उसके आने की फ्रिक्वेन्सी काफी तेज़ हो सकती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए रेग्यूलेटरी एजेन्सियों की एक सीमा होती है, क्योंकि वे उसी समाज के व्यक्तियों द्वारा लाए जाते हैं, जो समाज इन एजेन्सियों को कमजोर करने में लगा रहता है। लेकिन नैतिकता न तो कमज़ोर होती है, और न ही सीमा में कैद। वह सार्वकालिक होती है, और सार्वभौमिक भी।
(विजय अग्रवाल)
नोट - यह लेख मनी मंत्र पत्रिका में प्रकाशित हुआ है.
बढिया आलेख प्रस्तुत किया है।आभार।
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