ठंड के दिनों में किसी को सुबह पांच बजे स्टेशन आने के लिए कहना एक प्रकार से उसके साथ ज्यादती ही कहा जाएगा, जो मैंने किया। स्वाभाविक था कि इस काम के लिए मैंने उन्हें सच्च आभार प्रकट किया। मेरे इस आभार के बदले में उन्होंने जो कहा, ईमानदारी से बता रहा हूं कि वह मुझे अंदर तक छू गया।
उन्होंने कहा, ‘सर, काम तो हम रोज ही करते हैं, लेकिन सेवा करने का मौका कभी-कभार ही मिलता है।’ आपकी जानकारी के लिए बता दूं कि ये सज्जन मेरे अधीन काम कर चुके थे। ‘सेवा’ शब्द पानी की ठंडी धार की तरह मेरे कानों से होते हुए नाभि तक उतर गया, और मैं अभिभूत हो उठा।
सेवा भी आखिर में होता तो काम ही है। लेकिन दोनों में जो बहुत महीन और गहरा अंतर है, वह है - बोध का। यह फर्क भावना का फर्क है, जुड़ाव का फर्क है। सेवा में जुड़ाव जरूरी है। काम में तटस्थता चलेगी, लेकिन सेवा में नहीं। इस जुड़ाव का अनुभव हम तब करते हैं, जब हम मन से बनाया हुआ भोजन करते हैं। फामरूले तो सब वही रहते हैं, लेकिन मन का, जुड़ाव का हल्का-सा छौंक लगाते ही भोजन का स्वाद एकदम बदल जाता है।
यही काम के साथ भी होता है। काम और मन का रिश्ता कायम होते ही न केवल काम की गुणवत्ता में सुधार आ जाता है, बल्कि उसके पूरा होने का समय भी कम हो जाता है। और इन सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात यह कि काम करने में आनंद आता है, सो अलग। क्या ‘आनंद’ से बड़ा होता है - प्रमोशन, और क्या इससे भी बड़ा होता है - कोई पुरस्कार?
नोट - यह लेख ११, फरवरी २००९ को दैनिक भास्कर के 'विकास मंत्र' स्तम्भ में प्रकाशित हुआ था.
शुक्रवार, 5 जून 2009
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बिलकुल ठीक काम तो हम सब करते है..लेकिन सेवा की भावना से किया गया कार्य ही कुछ मायने रखता है...!यही भावना आज लुप्त होती जा रही है...
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