यह ११ अक्टूबर १९९६ की घटना है और यह घटित हुई चेक गणराज्य की राजधानी प्राग के कैसल में, जिसे आप अपने यहां की तर्ज पर वहां का राष्ट्रपति भवन कह सकते हैं। इस छोटी सी किंतु काफी बड़ी घटना के नायक हैं चेक गणराज्य के तत्कालीन राष्ट्रपति वात्स्लाव हावेल।
हावेल साहब की जितनी ख्याति चेक के एक सफल लोकप्रिय एवं महान राष्ट्रपति के रूप में है उससे भी कहीं अधिक वे विश्व के श्रेष्ठ नाटककारों में जाने जाते हैं। उस दिन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा का इसी प्राग कैसल में राजकीय स्वागत हुआ। सारी औपचारिकताओं के बाद विदाई का वक्त आया।
हावेल साहब अपने इस महल से निकलकर बाहर के खुले हिस्से में सभी को निजी तौर पर विदाई देने आए। भारतीय प्रतिनिधिमंडल के उपस्थित सदस्यों में से शायद ही कोई इतना बदकिस्मत रहा होगा, जिनके कंधों पर हाथ रखकर उन्होंने विदाई न दी हो। लेकिन हम लोगों ने विदाई ली कहां। उनके छोटे-छोटे कोमल हाथों का स्पर्श इतना स्नेहपूर्ण था कि उन्हें विदाई न देते हुए अपने दिलों में बसाकर चले आए।
12 साल पहले की इस घटना को याद करने का कारण यह है कि आज स्पर्श की बात तो दूर, आदमी के दर्शन को भी दुर्लभ बनाया जा रहा है। ईमेल ही गांव की चौपाल और पनघट बन रहा है, जहां आप उनका चेहरा-मोहरा देखे बिना ही उनसे बातें कर रहे हैं और केवल उतनी ही बातें कर रहे हैं जिससे आपका काम चल जाए।
आदमी की सच्ची सफलता और सच्चे विकास का मापदंड यही है कि वह कितने लोगों के जेहन में रचा-बसा हुआ है। किसी के जेहन में जगह लूटने से नहीं, वरन लुटाने से बनती है, फिर चाहे आप दौलत लुटाएं या दिल। वात्स्लाव हावेल जैसे लोगों की महानता और सफलता का राज इसी में है कि उन्हें जहां भी मौका मिलता है, अपने दिल का एक छोटा सा टुकड़ा उछाल देते हैं।
नोट - यह आलेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है.
हावेल साहब की जितनी ख्याति चेक के एक सफल लोकप्रिय एवं महान राष्ट्रपति के रूप में है उससे भी कहीं अधिक वे विश्व के श्रेष्ठ नाटककारों में जाने जाते हैं। उस दिन भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा का इसी प्राग कैसल में राजकीय स्वागत हुआ। सारी औपचारिकताओं के बाद विदाई का वक्त आया।
हावेल साहब अपने इस महल से निकलकर बाहर के खुले हिस्से में सभी को निजी तौर पर विदाई देने आए। भारतीय प्रतिनिधिमंडल के उपस्थित सदस्यों में से शायद ही कोई इतना बदकिस्मत रहा होगा, जिनके कंधों पर हाथ रखकर उन्होंने विदाई न दी हो। लेकिन हम लोगों ने विदाई ली कहां। उनके छोटे-छोटे कोमल हाथों का स्पर्श इतना स्नेहपूर्ण था कि उन्हें विदाई न देते हुए अपने दिलों में बसाकर चले आए।
12 साल पहले की इस घटना को याद करने का कारण यह है कि आज स्पर्श की बात तो दूर, आदमी के दर्शन को भी दुर्लभ बनाया जा रहा है। ईमेल ही गांव की चौपाल और पनघट बन रहा है, जहां आप उनका चेहरा-मोहरा देखे बिना ही उनसे बातें कर रहे हैं और केवल उतनी ही बातें कर रहे हैं जिससे आपका काम चल जाए।
आदमी की सच्ची सफलता और सच्चे विकास का मापदंड यही है कि वह कितने लोगों के जेहन में रचा-बसा हुआ है। किसी के जेहन में जगह लूटने से नहीं, वरन लुटाने से बनती है, फिर चाहे आप दौलत लुटाएं या दिल। वात्स्लाव हावेल जैसे लोगों की महानता और सफलता का राज इसी में है कि उन्हें जहां भी मौका मिलता है, अपने दिल का एक छोटा सा टुकड़ा उछाल देते हैं।
नोट - यह आलेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हो चुका है.
It is really a very good article.
जवाब देंहटाएं"जहां भी मौका मिलता है, अपने दिल का एक छोटा सा टुकड़ा उछाल देते हैं।"
जवाब देंहटाएंHow nicely put accross. Thanks for sharing such incidents.
बढिया पोस्ट लिखी है।
जवाब देंहटाएंIts inspiring!!!!!!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंIts amazing as well as inspiring !!!!!!!!!!!!
जवाब देंहटाएंI got a thought for the day !!!!!!!