भाग-2, मंथन के मोती
क्या आपने कभी सोचा है कि हम सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए क्यों हैं। आम तौर पर तो यही कहा जाता है कि हम एक दूसरे से इसलिए जुड़े हुए हैं, क्योंकि हम एक-दूसरे की जरूरत होते हैं। हम एक-दूसरे से इसलिए जुड़े हुए हैं, क्योंकि हम एक-दूसरे को चाहते हैं। लेकिन यदि इसी बात को थोड़ा-सा फैलाकर थोड़े से विस्तार के साथ कहा जाए, तो हमारा उत्तर यह होगा कि हम एक-दूसरे से इसलिए जुड़े हुए हैं, क्योंकि हमारे पास संवेदनाएँ हैं। मुझे लगता है कि यह उत्तर अधिक सटीक उत्तर होगा।
संवेदना का मतलब है-समान वेदना का अनुभव करना। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि यहाँ समान सुख के अनुभव की बात नहीं कही गई है, बल्कि समान वेदना के अनुभव की बात कही गई है। हो सकता है कि मेरा पड़ोसी जिस सुख का अनुभव कर रहा हो, मैं उस सुख का अनुभव नहीं कर पा रहा हूँ। हम दोनों के अनुभव में फर्क हो सकता है। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए कि यदि पड़ोसी दुःख का अनुभव कर रहा है, वेदना का अनुभव कर रहा है, तो मुझे वेदना का अनुभव न हो।
सुख हमें भले ही न जोड़ें, लेकिन वेदना हमें जोड़ती है। इसलिए तो संवेदना को इतना बड़ा गुण माना गया है। यदि यही नहीं रह गया, तो फिर हमारे पास रह ही क्या जाएगा। मनुष्य ही तो एक ऐसा प्राणी है, जो अपने ही दुःख से नहीं, बल्कि दूसरों के दुःख से भी दुःखी होता है। यही कारण है कि वह केवल अपने ही दुःखों को दूर करने में उसे नहीं लगा रहना चाहिए, बल्कि उसे दूसरों के दुःखों को भी दूर करने की हरसंभव कोशिश करना चाहिए। इसे ही हमारे यहाँ सेवा करना कहा गया है, जिसे ईश्वर की आराधना का दर्जा दिया गया है। दुखियों की सेवा यानी कि ईश्वर की सेवा।
इसका एक बहुत महत्त्वपूर्ण पक्ष जो है-वह यह है कि जिन कारणों से हमें दुःख होता है, उन्हीं कारणों को हम जन्म न दें ताकि अन्य लोगों को दुःख न हो। बल्कि इससे भी बढ़कर यह कि यदि हमें मौका मिले, तो हम ऐसे लोगों को सुख देने की कोशिश करें। हम अपनी संवेदनाओं को इतना फैला दें, इतना बढ़ा दें कि वह हर जीव-जगत तक फैल जाए।
तो आइये, इससे जुडी एक कहानी जानतें हैं।
विख्यात लेखक एच.जी.वेल्स अपने मकान की तीसरी मंजिल के एक मामूली से कमरे में रहा करते थे। एक बार उनके मित्र ने पूछा-‘‘आप साधारण कमरे में क्यों रहते है? इस मकान की निचली मंजिल पर तो इससे अधिक आरामदायक व सुंदर कमरे हैं। आप उनमें से कोई चुन सकते हैं?’’ ‘‘उन कमरों में मेरे नौकर रहते हैं।’’ वेल्स ने उत्तर दिया। ‘‘आपने नौकरों को इतने शानदार कमरे क्यों दे रखे हैं, जबकि लोग आमतौर पर नौकरों को घर का सबसे खराब कमरा देते हैं।’’ मित्र ने पूछा। वेल्स ने गंभीरता से कहा-‘‘मैंने जानबूझकर ऐसा किया है, क्योंकि कभी मेरी माँ लंदन के एक घर की नौकरानी थी।’’
सचमुच कितनी अद्भुत और रोमांचित कर देने वाली कहानी है यह। लेखक वेल्स ने माँ के प्रति अपनी संवेदना को इतना फैला दिया कि उसे अपनी घर की नौकरानी में माँ दिखाई देने लगी। उनके लिए तो सुख की परिभाषा तक बदल गई। उन्होंने दूसरे के सुख में ही अपने सुख को देखना शुरू कर दिया। जब हम दूसरों के सुख में अपना सुख ढूँढने लगते हैं, उसी क्षण समझ लेना चाहिए कि हमें सच्चा सुख मिल गया है। उसी क्षण हमें यह जान लेना चाहिए कि ईश्वर का निवास हमारे हृदय में हो गया है। हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि हम सही अर्थों में अब इंसान बन गए हैं। इंसान यानी कि ईसा के सच्चे शिष्य।
डॉ० विजय अग्रवाल
प्रेरक पोस्ट। जानकारी के लिए आभार।
जवाब देंहटाएं-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आप के विचार आंदोलित करते हैं.
जवाब देंहटाएंहम एक दूसरे से इसलिए भी जुड़े हैं क्योंकि नैसर्गिक रूप से हम स्वार्थी हैं और स्वार्थ की पूर्ती करना हमारा मूल प्राकृतिक स्वाभाव है.स्वार्थ को यदि ठीक तरीके से और गहनता से समझ लिया जाएतो हम एक दुसरे के स्वार्थ को सम्मान की दृष्टी से देख पायेंगे.परमार्थ मेरे दृष्टिकोण में स्वयं के स्वार्थ का विस्तार है.यदि मैं अपने स्वार्थ का इतना विस्तार कर दूँ की यह पूरा ब्रम्हाण्ड ही मेरा है तो फिर मुझ से कोई पराया कैसे हो सकता है..?
समस्या आज यह है की हमने अपने आप का विस्तार छोड़ कर,स्वयं को सिकोड़ना शुरू कर दिया है और इतना सिकोड़ लिया कि वो स्वयं के शरीर तक ही सीमित होता जा रहा है.
मेरे इस विचार पर अपनी टिप्पणी दीजियेगा.