जब हमें किसी से कोई शिकायत होती है या हम उससे किसी बात पर नाराज होते हैं, तो जैसे ही वह हमारे सामने आता है, हम उस पर फट पड़ते हैं। इससे पहले कि वह कोई कैफियत दे, हम अपना गुबार निकालकर हल्के होने की जल्दबाजी दिखाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। और सच पूछिए तो यह एक ऐसी शुरुआत होती है, जो शुरू में ही गड़बड़ा गई है। अब आप उससे किसी अच्छे की उम्मीद नहीं कर सकते। यह तो कुछ उसी तरह से हुआ कि आप गाड़ी चलाने की शुरुआत फोर्थ गेयर से कर रहे हैं।
इसी की जगह यदि हम अपनी नाराजगी की गाड़ी की शुरुआत एक नंबर गेयर से करने की आदत बना लें, तो हमारी समस्याओं का समाधान चमत्कारिक रूप में होने लगता है। मैं इस बारे में अपने कुछ तजुर्बे आप तक पहुंचाना चाहूंगा-
1. एक साइकिल सवार ने जब पैदल जा रहे मुझ पर टक्कर मार दी, तो मैंने नाराज होने के बजाय उससे ‘सॉरी’ कहा। वह भौचक्का होकर मुझे देखने लगा।
2. मैं टिकट लेने के लिए लाइन में लगा हुआ था। एक सूट-बूट वाले जनाब लाइन के बीच में घुसने की जुगाड़ में थे। मैंने उन्हें अपने आगे खड़े होने के लिए आमंत्रित किया। वे पानी-पानी होते हुए से दिखे।
3. वह नौ दिनों बाद ऑफिस आया था और वह भी बिना छुट्टी लिए। मैंने जब उसे इत्मीनान से बैठाकर बड़े सहज भाव से इतने दिनों तक उसके न आने का कारण पूछा, तो उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। उसकी आंखें तत्काल भीग गईं।
ऐसे मौकों पर उग्र व्यवहार की उम्मीद करना हमारी आदत बन चुकी है। जब इस आदत के विरुद्ध हमें सौम्य और संतुलित व्यवहार मिलता है, तो हम चमत्कृत हो जाते हैं और इस व्यवहार का सामने वाले पर बड़ा चमत्कारिक असर पड़ता है।
आदरणीय बन्धु! लगता है आप किसी और ही दुनिया में रहते हैं. अपने अनुभव तो इसके बिलकुल विपरीत हैं. अपन ने पाकिस्तान में समझौता एक्सप्रेस चलवाई तो उसने उसने कुछ और आतंकवादी भेज दिए. एक पार्टी पर 40 साल तक भरोसा किया (और इसी सिद्धांत का दावा करने वाली) तो उसने पूरे देश की वाट लगा कर धर दी, मान लिया कि देश उसकी निजी जायदाद है. गुरुजी को इज़्ज़त देने लगे तो उन्होंने कक्षा में आना गुनाह मान लिया. दफ्तर में सहयोगियों से तमीज़ से पेश आने लगे तो वो टेकेन फॉर ग्रंटेड लेने लगे और बॉस को इज्जतवश कुछ बेहूदगियों का जवाब नहीं दिया तो उन्होंने लल्लू समझ लिया. झूठमूठ में बंडलबाजी करनी हो तो अलग बात है. इसके उलट जिन लोगों ने बड़े लोगों पर जूते फेंके ......... उसके नतीज़े भी आपके सामने हैं. बताइए, अब भी आप यही कहेंगे?
जवाब देंहटाएंजितनी हद तक आपकी बातें सही है .. उतनी ही दूर तक इष्ट देव सांकृत्यायन जी की भी .. आज वो जमाना नहीं रहा .. महात्मा बुद्ध ने कहा 'मै तो रूक गया , बोल तू कब रूकेगा' और अंगुलीमाल महात्मा के चरणों में .. जमाने के अनुकूल बनना पडता है सबों को।
जवाब देंहटाएंआदरणीय अग्रवालजी,
जवाब देंहटाएंआप के विचार से सहमत हूँ. फर्स्ट गियर से भी पहले शुरुआत चाबी घुमाने से की जाये तो और भी अच्छा...!
मेरा भी भरोसा है की इंसान का मूल स्वरुप सद्-व्यहवार में ही है और ''बोध'' ही वह चीज है जो इंसान के जीवन में बदलाव लाती है,वचनों और प्रवचनों का उतना असर नहीं होता.