बुधवार, 3 जून 2009

इमोशनल एनर्जी का सच

मैं बेहद तनाव में था और रात भर चिंता के कारण सो नहीं पाया था। रात में नींद आनी बहुत जरूरी थी, क्योंकि सुबह नौ बजे मुझे देश की एकमात्र नेशनल जूडिशियल एकेडमी में समय प्रबंधन पर दो घंटे बोलना था। दरअसल मेरे तनाव का कारण यह था कि मुझे अंग्रेजी में बोलना था, वह भी देश भर से आए हुए जजों के सामने। थोड़ी बहुत अंग्रेजी पढ़-बोल लेना अलग बात है, किंतु धाराप्रवाह बोलना अलग बात थी।
फिर भी मैंने इसे चुनौती के रूप में स्वीकार किया था कि ‘आखिर कब तक यूं ही डरता रहूंगा।’ सुबह आठ बजे मेरी पत्नी प्रीति का फोन आया ‘शुभकामनाएं आपके लेक्चर के लिए।’ ये शब्द सुनते ही मैं जोश से भर गया। मुझे लगा मानो ये किसी फरिश्ते के शब्द हैं, जो ऊर्जा बनकर मेरी देह और मेरी चेतना में व्याप्त हो गए हैं। मेरा गला भर गया था और मैं ‘धन्यवाद’ से अधिक कुछ जवाब न दे सका। उसी क्षण, तत्काल मैं निर्भय हो गया। मुझमें एक विलक्षण आत्मविश्वास आ गया और मैं डेढ़ घंटे की बजाय सवा दो घंटे तक लगातार बोलता गया और मुझे ध्यान से सुना गया। तार्किक रूप से बता पाना मुमकिन नहीं है कि ऐसा क्यों हुआ। लेकिन सच यही है कि ‘ऐसा हुआ, और ऐसा होता है।’ हम सभी के अंदर एक इमोशनल एनर्जी है, जिसकी शक्ति अद्भुत होती है। यह छिपी हुई रहती है, ठीक वैसे ही जैसे पत्थर में मौजूद असंख्य चिंगारियां। जब आपके अपने बहुत गहरे बैठा हुआ कोई उसे रगड़ या कुरेद देता है तो चौंधिया देने वाले प्रकाश का अदम्य फव्वारा अचानक फूट पड़ता है। और देखते ही देखते सारा नजारा रोशनी में नहा उठता है, शायद यही हुआ होगा। हमें इसकी खोज करनी ही चाहिए।
नोट - यह लेख ०२ अप्रैल २००९ को दैनिक भास्कर के 'विकास मंत्र' स्तम्भ में प्रकाशित हुआ था.

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