रविवार, 21 जून 2009

गैलीलियो से सीखें जीवन का सिद्धांत


मंथन के मोती, भाग- 5

‘‘मंथन के मोतियों’’ के श्रद्धालु दर्शकों को मेरा शत-शत प्रणाम।

आपने सुना ही है कि जिन्दगी जिंदादिली का नाम है। इसे हम यूँ भी कह सकते हैं कि जिन्दगी जीने के लिए है। न तो यह घसीटने के लिए है और न ही यह नष्ट किए जाने के लिए है। यह हमारी अपनी सम्पत्ति नहीं है कि हम इसके साथ जैसा व्यवहार करना चाहें वैसा करें। सच तो यह है कि यह हमको सौंपी गई एक ऐसी अमूल्य धरोहर है, जो ईश्वर ने हमें सौंपी है। धरोहर पर हमारा अधिकार नहीं होता बल्कि दायित्त्व होता है। यह दायित्त्व होता है-इसे सम्हाले रखने का, ताकि जब इसका मालिक इसे मांगे, तो हम उसे सौंप सकें, कबीरदास की तरह कि ‘जस की तस धर दिनी चदरिया’।

हमारा जीवन जो आज है, वही आगे नहीं रहेगा। इसमें हमेशा अनन्त संभावनाएँ छिपी रहती हैं, लेकिन वे संभावनाएँ तभी सच में परिवर्तित हो सकेंगी, यदि जीवन हमारे पास होगा। यदि जीवन ही नहीं होगा, तो फिर संभावनाएँ भी नहीं होंगी। इसलिए सबसे बड़ी बात है-जीवन का बने रहना, जीवन का होना। मैं ऐसे किसी भी सिद्धान्त, किसी भी दर्शन और किसी भी नीति शास्त्र का समर्थन नहीं कर पाता, जो जीवन को नष्ट करने का समर्थन करता हो। फिर चाहे वह खुद का जीवन हो या बहुत सारे लोगों का जीवन। इस दृष्टि से मुझे महान वैज्ञानिक गैलीलियो बहुत पसन्द आते हैं। तो आइए, इससे पहले कि आप उनकी समीक्षा करें, उनके जीवन के इस महत्त्वपूर्ण भाग को जानें-

विशेष आयोग की रिपोर्ट में गैलीलियो पर कई तरह के अभियोग लगाए गए, जिसमें मुख्य था कि उन्होंने 1616 के चर्च के उस आदेश का उल्लंघन किया है, जिसमें कॉपरनिकस के सिद्धान्त को पढ़ने, मानने या उसके बारे में लिखने पर रोक लगाई गई थी। इसके बाद मामला धार्मिक अदालत को सौंप दिया गया। गैलीलियो के इस आग्रह को भी ठुकरा दिया गया कि उनकी अधिक उम्र को देखते हुए उनके मुकदमे की सुनवाई उनके गृहनगर फ्लोरेंस में की जाए। फलतः 23 दिन की यात्रा करके वे रोम पहुँचे। इससे वे कितने दुःखी थे, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे कई दिनों तक लगातार रोते रहे थे।

मुकदमे के दौरान उन्हें धर्माधिकरण की इमारत में कैद करके रखा गया। मुकदमे की सुनवाई दस कार्डिनलों वाली एक पीठ ने की। अदालत ने गैलीलियो के सामने यह प्रावधान रखा कि यदि वे चर्च द्वारा दिए गए वक्तव्य को जनता के सामने पढ़ देंगे, तो उनके साथ कुछ रियायत की जा सकती है। हताश गैलीलियो ने यह बात स्वीकार कर ली, क्योंकि वे जानते थे कि ऐसा न करने पर उन्हें मृत्युदण्ड भी मिल सकता है। उन्होंने घुटनों के बल बैठकर वक्तव्य पढ़ दिया कि ‘‘मैं उस सिद्धान्त की निन्दा करता हूँ, जो यह कहता है कि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है।’’ कहा जाता है कि जब गैलीलियो उठकर खड़े हुए, तो उन्होंने पृथ्वी पर जोर से लात मारते हुए कहा कि ‘‘तू अभी तक घूम रही है।’’

है न कितनी मजेदार बात। गैलीलियो के लिए अपना जीवन महत्त्वपूर्ण था। उतना ही महत्त्वपूर्ण था, उनके लिए अपना वह सिद्धान्त, जिसे वे सही मानते थे। उन्होंने बहुत अच्छा रास्ता यह निकाला कि जीवन को भी बचा लिया और सिद्धान्त को तो बचना ही बचना था क्योंकि वह प्रकृति का सिद्धान्त था, जिस पर न्यायालय के निर्णय लागू नहीं हो सकते। इसलिए उन्होंने पृथ्वी पर जोर से लात मारते हुए यही कहा कि ‘‘मेरे निन्दा करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है क्योंकि होता तो वही रहेगा जो होना चाहिए।’’

मुझे लगता है कि हम सभी को गैलीलियो की इस घटना से अपनी जिन्दगी के महत्त्व का सन्देश लेना चाहिए। इस जीवन को बनाए रखना हम सभी का धर्म है, क्योंकि यह प्रकृति के द्वारा इस धरती को दिया गया सर्वोत्तम उपहार है और हमें सौंपी गई सबसे बड़ी धरोहर है।

फिलहाल इतना ही। आगे आपसे फिर मिलूँगा। तब तक के लिए विश्राम की आज्ञा चाहता हूँ।

हमे बताते रहें कि आपको कैसा लग रहा है हमारा यह प्रोग्राम।

नोट- डॉ॰ विजय अग्रवाल के द्वारा दिया गया यह वक्तव्य जी न्यूज़ पर प्रतिदिन सुबह प्रसारित होने कार्यक्रम 'मंथन'में दिया गया था. उनका यह कार्यक्रम अत्यंत लोकप्रिय है.

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