शनिवार, 9 मई 2009

वैश्वीकरण के दौर में धन की भारतीय अवधारणा



 पिछले लगभग सात सालों से धन से जुड़ा यह जुमला बहुत लोकप्रिय हुआ है कि ‘‘कसम से रूपया खुदा तो नहीं है, लेकिन खुदा से कम भी नहीं है।’’ इसकी लोकप्रियता केवल इसके कहे जाने के अंदाज में ही नहीं है, बल्कि इसमें भी है कि इसी दौरान भारतीय जनचेतना में भी एक जबर्दस्त बदलाव आया है। यह बदलाव खुले जीवन-मूल्यों के स्वीकार किये जाने से कहीं अधिक धन को खुदा मान लेने में है। ऐसा नहीं है कि व्यावहारिक स्तर पर इससे पहले हम धन का तिरस्कार करते थे। वह तब भी महत्त्वपूर्ण था, और काफी महत्त्वपूर्ण था। लेकिन उसके साथ दो बातें अभी से अलग थीं। एक तो यह कि वह महत्त्वपूर्ण तो था लेकिन आज की तरह सब कुछ नहीं था। दूसरा यह कि उसकी इस महत्ता को महसूस तो सभी करते थे, लेकिन आज की तरह ताल ठोंककर कहने वाले इक्के-दुक्के ही होते थे। जो कुछ भी था, दबी जुबान में था। नये उदारवाद के इस अंधड़ ने पुरानी कुटिया को उजाड़कर उसके स्थान पर नये आशियाने की जो संभावनायें पैदा की, उसमें धन सचमुच में खुदा क्या, बल्कि खुदा का भी खुदा बन बैठा है।
     मैं यहाँ आपसे यह कहने की इजाजत चाहूँगा कि आप मेरी इन बातों का अर्थ यह कतई न लगायें कि मैं धन के विरोध में खड़ा हुआ व्यक्ति हूँ। स्वयं भारतीय दर्शन और जीवन ने कभी भी इसका घोर विरोध नहीं किया है। यदि ऐसा होता, तो वह कभी भी जीवन के चार लक्ष्यों में ‘अर्थ’ को (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) प्रथम न मानता, और उसे मोक्ष प्राप्ति का प्रस्थान बिन्दु नहीं कहता। यदि भारतीय दर्शन इसका विरोधी होता, तो इसके राम और कृष्ण जैसे अवतार तथा बुद्ध और महावीर जैसे दैव पुरुष राजघरानों के नहीं होते। यदि हम धन के विरोधी होते, तो हमने समुद्र मंथन में से प्राप्त देवी को धन की देवी कहकर उन्हें परम आत्मा विष्णु की पत्नी का दर्जा देकर पूजा योग्य नहीं बनाया होता।
     दरअसल इस तरह की गलतफहमी वहाँ पैदा हो जाती है, जब बात दान की, त्याग की या संन्यास की आती है। लोग इसे धन का विरोध करना मान बैठते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि जब तक धन नहीं होगा, तब तक भला दान और त्याग संभव ही कैसे है। जाहिर है कि यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से ही सही, लेकिन स्पष्ट निर्देश यही है कि ‘‘पहले अर्जन करो। फिर उसे छोड़ दो। उससे जुडे़ मत रहो।’’ इस निर्देश का अधिकांश लोग अर्थ यह लगा लेते हैं कि ‘‘जब छोड़ना ही है, तो फिर जोड़ना क्यों?’’ जबकि समुद्र मंथन से निकले चौदह रत्नों में से एक रत्न लक्ष्मी जी ने अपने सम्मुख हाथ जोड़कर याचक बने समस्त सुर और असुरों के सामने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘‘मैं वहाँ रहूँगी, जहाँ पुरुषार्थ रहेगा।’’
     बहुत प्यारा और अर्थयुक्त शब्द है-पुरुषार्थ। जब व्यक्ति कर्म करता है, तब वह ऐसा करके अपने पुरुष होने को अर्थ देता है। यानी कि कर्म ही पुरुषार्थ है। बात साफ है कि जहाँ कर्म होगा, वहाँ लक्ष्मी भी होगी। यह देवी लक्ष्मी द्वारा, जी हाँ, धन की देवी लक्ष्मी द्वारा इस पृथ्वी के मानव समुदाय को दी गई आश्वस्ति है कि ‘‘तुम कर्म करो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।’’ मुझे लगता है कि हम सभी को उनके इस आश्वासन पर विश्वास करना ही चाहिए। इस तरीके से प्राप्त किया गया धन अर्जित धन कहलाता है। यह धन का अर्जन करना है।
इसका दूसरा रूप सर्जन का रूप है। इसमें हम कुछ करते नहीं है, बल्कि यह हमारे पास आ जाता है। अपने आप आ जाता है। हम उम्मीद नहीं करते कि ऐसा होगा, लेकिन हो जाता है। किसी को गड़ा हुआ धन मिल जाता है, तो किसी को किसी की वसीयत से यूं ही मिल जाता है। किसी की लाटरी खुल जाती है, तो किसी की ज़मीन की कीमत देखते-ही-देखते आसमान छूने लगती है।
     लेकिन, जो मजा अर्जित धन में होता है, जो सुख इसमें मिलता है, वह सृजित धन में नहीं, क्योंकि इससे हमें कुछ रचने का, कुछ करने का सुख नहीं मिल पाता। हमारे मन के किसी कोने में छोटी सी ही सही, लेकिन एक गाँठ पड़ जाती है कि ‘‘इसके लिये हमने तो कुछ किया ही नहीं है। यह तो बस हो गया है।’’ यह कुछ इसी तरह की जीत जैसी है, जैसे कि वाकओवर से किसी मैच को जीत जाना। जीत तो गए। कप भी मिल गया। लेकिन जीतने की खुशी नहीं मिली। मैं समझता हूँ कि जीतने से ज्यादा कीमती है, उससे मिलने वाली खुशी। और मित्रो, विश्वास कीजिए कि खुशी केवल जीतने में ही नहीं मिलती, बल्कि हारने में भी मिलती है, बशर्ते कि यह हार कोशिश करने के बावजूद मिली हुई हार हो।
     मुझे लगता है कि शायद इसीलिए हमारे दार्शनिकों और भाषाशास्त्रियोँ ने धन को ‘अर्थ’ भी कहा है। इसका अर्थ ही है कि धन का अपना एक अर्थ होता है, और इसे अर्थ मिलता है इसकी उपयोगिता से। जब हम इसे खर्च करते हैं, तभी धन की सार्थकता सिद्ध होती है। इस प्रकार धन साधन है, अपने आप में साध्य नहीं।
    दुनिया में धन को लेकर जब-जब भी किसी तरह के संकट आए हैं, वे आए ही तभी हैं, जब इसे साधन न समझकर साध्य माना गया है, पड़ाव न मानकर मंजिल मान लिया गया। यह अपने आप में खुदा बन गया।
वस्तुतः समाज में जब भी धन के प्रति इस तरह का गलत दृष्टिकोण प्रचलित होता है, तब-तब साध्य और साधन के बीच का अंतर सिमटकर दोनों एक हो जाते हैं। किसी भी तरह से साध्य को पा लेना ही जीवन का लक्ष्य हो जाता है। यदि हम सत्यम के मामले को इस कसौटी पर परखेंगे, तो हमें इस बात पर और भी पक्का यकीन हो जायेगा।
धैर्य की कमी के कारण, जल्दी से जल्दी अरबपति बन जाने की अतृप्त लालसा के कारण लोग धन कमाने के उन सही रास्तों से भटक जाते हैं, जो हमारे पूर्वजों ने और हमारे ग्रन्थों ने हमें दिखाये हैं। ये वे सही रास्तें है, जो चमत्कार तो नहीं करते, लेकिन आपको इस बात की गारन्टी जरूर देते हैं कि आप देर-सबेर अपनी मंजिल तक पहुँच जरूर जायेंगे। हाँ, एक बात और। वह यह कि पहुँच ही नहीं जायेंगे, बल्कि उस मंजिल पर लम्बे समय तक टिके भी रहेंगे। जिन्हें हम खानदानी रईस कहते हैं, वे इसी रास्ते पर चलकर यहाँ तक पहुँचते हैं। इनके लिए कोई शार्टकट नहीं होता। अगर होगा भी, तो वे इसे स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि वे प्रकृति के इस अटल नियम को बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि जो चीज़ जितनी तेज़ी से बढ़ती है, उसका पतन भी उतनी ही तेजी से होता है। केले का पौधा धड़ाधड़ बढ़ता जाता है। दो साल में ही वह दस-बारह फुट का हो जाता है। लेकिन उसकी ज़िन्दगी भी लगभग इतनी ही होती है। जबकि दो साल में पता ही नहीं चलता कि बरगद का पौधा बढ़ा भी है या नहीं। लेकिन यह रहता है दो-तीन सौ साल तक। इसलिये ये खानदानी रईस बरगद बनने को महत्व देते हैं, बजाय केला की गाछ बनने के।
एक बड़े मज़े की और बड़े गौर करने की बात यह भी है कि भारतीय दर्शन ने देवी लक्ष्मी के दो वाहन निर्धारित किये हैं। शायद ही किसी अन्य देव या देवी के दो वाहन हों, सिवाय लक्ष्मी के। तो इसके पीछे भी कोई न कोई कारण तो रहा ही होगा।
      लक्ष्मी के वाहन हैं-उल्लू और गरूड़। जब धन कमाने के हमारे साधन सही, पवित्र और सुथरे होते हैं, तो जो लक्ष्मी हमारे घर में आती है, वे गरूड़ पर सवार होकर आती है। गरूड़ एक शुभ पक्षी है। शुभ पक्षी के आने से सब कुछ शुभ ही शुभ होता है।
       जबकि यदि धन गलत तरीके से कमाया गया, तो लक्ष्मी तो आती है, किन्तु उल्लू पर सवार होकर। उल्लू यानी कि मूर्ख। यह धन हमें यही बनाता है। उल्लू यानी कि दिन में न देख पाने वाला पक्षी। यानी कि ऐसे धन का उपयोग आप खुले रूप में नहीं कर सकते।
      मुझे लगता है कि भारतीय दर्शन में धन के प्रति जो अवधारणा व्यक्त की गई है, वह अदभुत है, सार्वकालिक है, और सार्वभौमिक भी है। यदि सचमुच धन का सुखभोग करना है, तो हमें केवल लाभ के सिद्धान्त को त्यागकर शुभ और लाभ के दर्शन को अपनाना होगा। और यही भारतीय मनीषा है।
(डॉ॰ विजय अग्रवाल)

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहूत ही सुंदर ओर मार्मिक लेख, सुक्रिया डॉक्टर साहब एसे ही लिख कर हमारी इंसानी आँखों के सामने से गर्द हटाते रहे, सादर वन्दे

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  2. बहूत ही सुंदर ओर मार्मिक लेख, सुक्रिया डॉक्टर साहब एसे ही लिख कर हमारी इंसानी आँखों के सामने से गर्द हटाते रहे, सादर वन्दे

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  3. भारतीय मनीषा का सार्वभौमिक मूल्य है । इसका स्मरण कराने के लिये धन्यवाद । सार्थक आलेख ।

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  4. बहुत बढिया विचार .. आपका कहना सही है कि भारतीय दर्शन में धन के प्रति जो अवधारणा व्यक्त की गई है, वह अदभुत है, सार्वकालिक है, और सार्वभौमिक भी है .. पर आज इसकी चकाचौंध में लोग इसके पीछे दौडे भागे जा रहे हैं .. बहुत चिंताजनक स्थिति है यह ।

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